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________________ द्वादशाङ्ग गणिपिटक] [173 अपेक्षा इसमें अट्ठारह हजार पद हैं, संख्यात अक्षर हैं, अनन्त गम है, अर्थात् प्रत्येक वस्तु में अनन्त धर्म होते हैं, अत: उनके जानने रूप ज्ञान के द्वार भी अनन्त ही होते हैं पर्याय भी अनन्त हैं, क्योंकि वस्तु के धर्म अनन्त हैं। स जीव परीत (सीमित) हैं। स्थावर जीव अनन्त हैं। सभी पदार्थ द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा शाश्वत (नित्य) हैं, पर्यायाथिक नय की अपेक्षा कृत (अनित्य) हैं, सर्व पदार्थ सूत्रों में निबद्ध (ग्रथित) हैं और निकाचित हैं अर्थात् नियुक्ति, संग्रहणी, हेतु, उदाहरण आदि से प्रतिष्ठित हैं / इस प्राचाराङ्ग में जिनेन्द्र देव के द्वारा प्रज्ञप्त (उपदिष्ट) भाव सामान्य रूप से कहे जाते हैं, विशेष रूप से प्ररूपण किये जाते हैं, हेतु, दृष्टान्त आदि के द्वारा दर्शाये जाते हैं, विशेष रूप से निर्दिष्ट किये जाते हैं, और उपनय-निगमन के द्वारा उपदर्शित किये जाते हैं। प्राचाराङ्ग के अध्ययन से प्रात्मा वस्तु-स्वरूप का एवं आचार-धर्म का ज्ञाता होता है, गुणपर्यायों का विशिष्ट ज्ञाता होता है तथा अन्य मतों का भी विज्ञाता होता है। इस प्रकार प्राचारगोचरी आदि चरणधर्मो की, तथा पिण्डशुद्धि आदि करणधर्मों की प्ररूपणा-इसमें संक्षेप से की जाती है, विस्तार से की जाती है, हेतु-दृष्टान्त से उसे दिखाया जाता है, विशेष रूप से निर्दिष्ट किया जाता और उपनय-निगमन के द्वारा उपदर्शित किया जाता है / / 1 / / ५१५-से कि तं सूअगडे ? सूयगडे णं ससमया सूइज्जंति, परसमया सूइज्जति, ससमयपरसमया सूइज्जति, जीवा सूइज्जति, अजीवा सूइज्जति, जीवाजीवा सूइज्जंति, लोगो सूइज्जति, अलोगो सूइज्जति लोगालोगो सूइज्जति / सूत्रकृत क्या है उसमें क्या वर्णन है ? सूत्रकृत के द्वारा स्वसमय सूचित किये जाते हैं, पर-समय सूचित किये जाते हैं, स्वसमय और पर-समय सूचित किये जाते हैं, जीव सूचित किये जाते हैं, अजीव सूचित किये जाते हैं, जीव और अजीव सूचित किये जाते हैं, लोक सूचित किया जाता है, अलोक सूचित किया जाता है और लोकअलोक सूचित किया जाता है। 516 --सयगडे णं जीवाजीव-पुण्ण-पावासव-संवर-निज्जरण-बंध-मोक्खावसाणा पयत्था सूइज्जति / समणाणं अचिरकालपब्वइयाणं कुसमयमोह-मोहमइ-मोहियाणं संदेहजायसहजबुद्धि परिणामसंसइयाणं पावकर-मलिनमइ-गुण-विसोहणत्थं असीअस्स किरियावाइयसयस्स, चउरासीए अकिरियवाईणं, सत्तट्ठीए अण्णाणियवाईणं, बत्तीसाए वेणइयवाईणं तिण्हं तेवढीणं अण्णदिट्टियसयाणं बूहं किच्चा सममए ठाविज्जति / णाणादिद्वैत-वयण-णिस्सारं सुट्ट दरिसयंता विविहवित्थाराणुगमपरमसम्भावगुणविसिट्ठा मोहपहोयारगा उदारा अण्णाण-तमंधकारदुग्गेसु दीवभूआ सोवाणा चेव सिद्धिसुगइगिहुत्तमस्स शिक्खोभ-निष्पकंपा सुत्तत्था / सूत्रकृत के द्वारा जीव, अजीव, पुण्य, पाप, प्रास्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष तक के सभी पदार्थ सचित किये जाते हैं / जो श्रमण अल्पकाल से ही प्रवजित हैं जिनकी बुद्धि खोटे समयों या सिद्धान्तों के सुनने से मोहित है, जिनके हृदय तत्त्व के विषय में सन्देह के उत्पन्न होने से आन्दोलित हो रहे हैं और सहज बुद्धि का परिणमन संशय को प्राप्त हो रहा है, उनकी पाप उपार्जन करनेवाली मलिन मति के दुर्गुणों के शोधन करने के लिए क्रियावादियों के एक सौ अस्सी, प्रक्रियावादियों के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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