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________________ 172] [समवायाङ्गसूत्र आचार संक्षेप से पाँच प्रकार का कहा गया है। जैसे—ज्ञानाचार, दर्शनाचार चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार / इस पाँच प्रकार के प्राचार का प्रतिपादन करनेवाला शास्त्र भी आचार कहलाता है। प्राचारांग की परिमित सूत्रार्थप्रदान रूप वाचनाएं हैं, संख्यात उपक्रम आदि अनुयोगद्वार हैं, संख्यात प्रतिपत्तियाँ हैं, संख्यात वेष्टक हैं, संख्यात श्लोक हैं, और संख्यात नियुक्तियाँ हैं / विवेचन--ज्ञान का विनय करना, स्वाध्याय-काल में पठन-पाठन करना, गुरु का नाम नहीं छिपाना, आदि पाठ प्रकार के व्यवहार को ज्ञानाचार कहते हैं। जिन-भाषित तत्त्वों में शंका नहीं करना, सांसारिक सुख-भोगों को प्राकांक्षा नहीं करना, विचिकित्सा नहीं करना आदि आठ प्रकार के सम्यक्त्वी व्यवहार के पालन करने को दर्शनाचार कहते हैं। पाँच महाव्रतों का, पाँच aa रूप चारित्र का निर्दोष पालन करना चारित्राचार है / बहिरंग और अन्तरंग तपों का सेवन करना तपाचार है। अपने आवश्यक कर्तव्यों के पालन करने में शक्ति को नहीं छिपा कर यथाशक्ति उनका भली-भांति से पालन करना वीर्याचार है। उक्त पाँच प्रकार के प्राचार की वाचनाएं परीत (सीमित) है / आचार्य-द्वारा आगमसूत्र और सूत्रों का अर्थ शिष्य को देना 'वाचना' कहलाती है। प्राचाराङ्ग की ऐसी वाचनाएं असंख्यात या अनन्त नहीं होती हैं, किन्तु परिगणित ही होती हैं, अतः उन्हें 'परीत' कहा गया है / ये वाचनाएं उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल के कर्मभूमि के समय में ही दी जाती हैं, अकर्मभूमि या भोगभूमि के युग में नहीं दी जाती हैं। उपक्रम, नय, निक्षेप और अनुगम के द्वारा वस्तु-स्वरूप का प्रतिपादन किया जाता है, प्रत एव उन्हें अनुयोग-द्वार कहते हैं। आचाराङ्ग के ये अनुयोगद्वार भी संख्यात ही हैं / वस्तु-स्वरूप प्रज्ञापक वचनों को प्रतिपत्ति कहते हैं / विभिन्न मत वालों ने पदार्थों का स्वरूप भिन्न-भिन्न प्रकार से माना है, ऐसे मतान्तर भी संख्यात ही होते हैं / विशेष—एक विशेष प्रकार के छन्द को वेढ या वेष्टक कहते हैं / मतान्तर से एक विषय का प्रतिपादन करनेवाली शब्दसंकलना को वेढ (वेष्टक) कहते हैं। आचाराङ्ग के ऐसे छन्दोविशेष भी संख्यात ही हैं। जिस छन्द के एक चरण या पाद में आठ अक्षर निबद्ध हों, ऐसे चार चरणवाले अनुष्टुप् छन्द को श्लोक कहते हैं। आचाराङ्ग में प्राचारधर्म के प्रतिपादन करनेवाले श्लोक भी संख्यात ही हैं। सूत्र-प्रतिपादित संक्षिप्त अर्थ को शब्द की व्युत्पत्तिपूर्वक युक्ति के साथ प्रतिपादन करना नियुक्ति कहलाती है। ऐसी नियुक्तियाँ भी प्राचाराङ्ग की संख्यात हो हैं। ५१४-से गं अंगट्ठयाए पढमे अंगे, दो सुयक्खंधा, पणवीसं अज्झयणा, पंचासीइं उद्देसणकाला, पंचासोई समृदेसणकाला, अद्वारस यदसहस्साई, पदम्गेणं, संखेज्जा अक्खरा, अिणंत पदसहस्साई, पदग्गेणं, संखेज्जा अक्खरा, [अणंता गमा] अणंता पज्जवा, परित्ता तसा, अजंता थावरा सासया कडा निबद्धा णिकाइया जिणपण्णत्ता भावा आघविज्जति पण्णविज्जति परूविज्जति सिज्जति निदंसिज्जति उवदंसिज्जति / से एवं गाया, एवं विण्णाया, एवं चरण-करणपरूवणया आविज्जति पण्णविज्जति परूविज्जंति दंसिज्जंति निदंसिज्जंति उवदंसिज्जंति / से तं पायारे।। गणि-पिटक के द्वादशाङ्ग में अंगकी (स्थापना की) अपेक्षा 'आचार' प्रथम अंग है। इसमें दो श्रुतस्कन्ध हैं, पच्चीस अध्ययन हैं, पचासी उद्देशन-काल हैं, पचासी समुद्देशन-काल हैं / पद-गणना की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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