________________ करने का संकेत किया गया है। इसी तरह स्थानांग में भी बलदेव और वासुदेव के पूर्ण विवरण के लिए समवायाग के अन्तिम भाग को अवलोकन करने हेतु सूचन किया है / इस विचार-चर्चा में यह स्पष्ट है कि समवायांग में जो परिशिष्ट विभाग है, वह विभाग देवद्धिगणिक्षमाश्रमण ने समवायांग में जोड़ा है। यह शोधार्थी के लिए अन्वेषणीय है कि नन्दी और समवायांग इन दोनों पागमों के संकलनकर्ता देवद्धि गणिक्षमाश्रमण हैं, तो फिर उन्होंने दोनों प्रागमों में जो विवरण दिया है, उसमें एकरूपता क्यों न रखी? दो प्रकार के विवरण क्यों दिये ? समाधान है कि अनेक वाचनाएं समय-समय पर हुयी हैं। अनेक वाचनाएं होने से बहुविध पाठ भी मिलते हैं / संभव है कि ये वाचनान्तर-व्याख्यांश अथवा परिशिष्ट मिलाने से हुये हों। विज्ञों ने यह कल्पना की है कि समवायांग में द्वादशांगी का जो उत्तरवर्ती भाग है, वह भाग उस का परिशिष्ट विभाग है। परिशिष्ट विभाग का विवरण नन्दीसूत्र की सूची में नहीं दिया गया है / इसलिये समवायांग की सूची विस्तृत हो गयी है। समवायांग के परिशिष्ट भाग में ग्यारह पदों का जो संक्षेप है, वह किस दृष्टि से इसमें संलग्न किया गया है, यह आगममर्मज्ञों के लिये चिन्तनीय है। समवायांग का वर्तमान में उपलब्ध पाठ 1667 श्लोक परिमाण है / इसमें संख्या क्रम से पृथ्वी, प्राकाश, पाताल, तीनों लोकों के जीव आदि समस्त तत्त्वों का द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की दृष्टि से एक से लेकर कोटानुकोटि संख्या का परिचय प्रदान किया गया है। इस में प्राध्यात्मिक तत्त्वों, तीर्थकर, गणधर, चक्रवर्ती और वासुदेवों से सम्बन्धित वर्णन के साथ भूगोल, खगोल आदि की सामग्री का संकलन भी किया गया है / स्थानांग के समान ही समवायांग में भी संख्या के क्रम से वर्णन है / दोनों प्रागमों की शैली समान है। समान होने पर भी स्थानांग में एक से लेकर दश तक की संख्या का निरूपण है। जबकि समवायांग में एक से लेकर कोडाकोडी संख्या वाले विषयों का प्रतिपादन है। स्थानांग की तरह समवायांग की प्रकरण-संख्या निश्चित नहीं है। यही कारण है कि प्राचार्य देववाचक ने समवायांग का परिचय देते हुए एक ही अध्ययन का सूचन किया है। यह कोष-शैली अत्यन्त प्राचीन है। स्मरण करने की दृष्टि से यह शैली अत्यन्त उपयोगी रही है। यह शैली अन्य आगमों में भी दृष्टिगोचर होती है / उत्तराध्ययन सूत्र के इकतीसवें अध्ययन में चारित्र विधि में एक से लेकर तेतीस तक की संख्या में वस्तुओं की परिगणना की गयी है। अविवेकपूर्वक प्रवृत्तियां कौन सी हैं ? उनसे किस प्रकार बचा जा सकता है और किस प्रकार विवेकपूर्वक प्रवृत्ति की जा सकती है, आदि / शैली स्थानांग और समवायांग की प्रस्तुत कोष-शैली बौद्ध परम्परा में और वैदिक परम्परा में भी प्राप्त है ! बौद्ध ग्रन्थ अंगुत्तरनिकाय, पुग्गलपति , महाव्युत्पत्ति एवं धर्मसंग्रह में इसी तरह विचारों का संकलन किया गया है। महाभारत के वनपर्व के 134 वें अध्याय में नन्दी और अष्टावक्र का संवाद है। उस में दोनों पक्ष वाले एक से लेकर तेरह तक वस्तुओं की परिगणना करते हैं। प्राचीन युग में लेखन सामग्री की दुर्लभता थी। मुद्रण का तो पूर्ण प्रभाव ही था। इसलिये स्मृति की सरलता के लिये संख्याप्रधान शैली अपनायी गयी थी। समवायांग में संग्रहप्रधान कोष-शैली होते हुये भी कई स्थानों पर यह शैली आदि से अन्त तक एकरूपता 8. एवं जहा समवाए निरवसेसं...... / -स्थानाङ्ग 9, सूत्र 672, मुनि कन्हैयालालजी 'कमल' [19] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org