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________________ को लिये हुये नहीं है। उदाहरण के रूप में अनेक स्थानों पर व्यक्तियों के चरित्र मा गये हैं। पर्वतों के वर्णन मा गये हैं तथा संवाद आदि भी। प्रस्तुत प्रागम में एक संख्यक प्रथम सूत्र के अन्त में यह कथन किया गया है / कितने ही जीव एक भव में सिद्धि को वरण करेंगे। उसके पश्चात दो से लेकर तेतीस संख्या तक यह प्रतिपादन किया गया है। इसके बाद कोई कथन नहीं है। जिससे जिज्ञासु के अन्तर्मानस में यह प्रश्न उबुद्ध होता है कि चौंतीस भव या उससे अधिक भव वाले सिद्धि प्राप्त करेंगे या नहीं ? इसका कोई समाधान नहीं है। हमारी दृष्टि से प्राचार्य देवद्धिगणि क्षमाश्रमण के समय प्रागमों के संकलन करते हुये ध्यान न रहा हो, या कुछ पाठ विस्मृत हो गये हों, जिसकी पूर्ति उन्होंने अनन्त संसार न बढ़ जाये, इस भय से न की हो। - यह बात हम पूर्व ही बता चुके हैं कि संख्या की दृष्टि से प्रस्तुत भागम में विषयों का प्रतिपादन हुआ है। इसलिये यह आवश्यक नहीं कि उस विषय के पश्चात् दूसरा विषय उसी के अनुरूप हो। प्रत्येक विषय संख्या दृष्टि से अपने आप में परिपूर्ण है तथापि आचार्य अभयदेव ने अपनी वत्ति में एक विषय का दूसरे विषय के साथ सम्बन्ध संस्थापित करने का प्रयास किया है। कहीं-कहीं पर उन्हें पूर्ण सफलता मिली है तो कहीं-कहीं पर ऐसा प्रतीत होता है कि वृत्तिकार ने अपनी ओर से हठात् सम्बन्ध स्थापित करने का प्रयास किया है। वस्तुतः इस प्रकार की शैली में एक सूत्र का दूसरे सूत्र से सम्बन्ध हो, यह आवश्यक नहीं। संख्या की दृष्टि से जो भी विषय सामने पाया, उसका इस पागम में संकलन किया गया। चतुष्टय की दृष्टि से वर्णन समवायांग में द्रव्य की दृष्टि से जीव, पुद्गल धर्म, अधर्म, प्राकाश आदि का निरूपण किया गया है / क्षेत्र की दृष्टि से लोक, अलोक, सिद्धशिला, प्रादि पर प्रकाश डाला गया है। काल की दृष्टि से समय, प्रावलिका, मुहूर्त प्रादि से लेकर पल्योपम, सागरोपम, उत्सपिणी, प्रवसर्पिणी, और पुद्गल-परावर्तन, एवं चार गति के जीवों की स्थिति आदि पर चिन्तन किया गया है। भाब की दृष्टि से ज्ञान, दर्शन चारित्र एवं वीर्य, प्रादि जीव के भावों का वर्णन है और वर्ण, गन्ध, रस, संस्थान, स्पर्श, आदि अजीव भावों का वर्णन भी किया गया है। प्रथम समवाय : विश्लेषण समवायांग के प्रथम समवाय में जीव, अजीव प्रादि तत्त्वों का प्रतिपादन करते हुये प्रात्मा, अनात्मा, दण्ड, अदण्ड, क्रिया, प्रक्रिया, लोक, अलोक, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, पुण्य, पाप, बन्ध, मोक्ष, पाश्रव, संवर, वेदना, निर्जरा, आदि को संग्रह नय की दष्टि से एक-एक बताया गया है। उसके पश्चात लम्बाई-चौड़ाई वाले जम्बूद्वीप सर्वार्थसिद्ध विमान आदि का उल्लेख है। एक सागर की स्थिति वाले नारक, देव प्रादि का विवरण दिया गया है। प्रथम समवाय में बहुत ही संक्षेप में शास्त्रकार ने जैन दर्शन के मूलभूत तत्त्वों का प्रतिपादन किया है। भारतीय दर्शनों में सबसे महत्त्वपूर्ण प्रश्न प्रात्मा का रहा है। अन्य दार्शनिकों ने भी प्रात्मा के सम्बन्ध में चिन्तन किया किन्तु उनका चिन्तन गहराई को लिये हुये नहीं था। विभिन्न दार्शनिकों के विभिन्न मत थे। कितने ही दार्शनिक प्रात्मा को व्यापक मानते हैं तो कितने ही दार्शनिक प्रात्मा को अंगुष्ठप्रमाण या तण्डुलप्रमाण मानते हैं। जैन दर्शन ने अनेकान्त दृष्टि से आत्मा का निरूपण किया है। वह जीव को परिणामी नित्य मानता है। द्रव्य की दृष्टि से जीव नित्य है, तो पर्याय की दृष्टि से अनित्य है। यहाँ पर प्रस्तुत एकस्थानक समवाय में, प्रात्मा [20] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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