________________ अनन्त होने पर भी सभी आत्माएँ असंख्यात प्रदेशी होने से और चेतनत्व की अपेक्षा से एक सदृश हैं। सभी आत्माएँ स्वदेहपरिमाण हैं। अतएव यहाँ आत्मा को एक कहा है। सर्वप्रथम प्रात्म तत्त्व का ज्ञान प्रावश्यक होने से स्थानांग और समवायांग दोनों ही आगमों में प्रथम प्रात्मा की चर्चा की है। आत्मा को जानने के साथ ही अनात्मा को जानना भी आवश्यक है / अनात्मा को ही अजीव कहा गया है। अजीव के सम्बन्ध से ही प्रात्मा विकृत होता है। उसमें विभाव परिणति होती है / अतः अजीव तत्त्व के ज्ञान की भी आवश्यकता है। अचेतनत्व सामान्य की अपेक्षा से अजीव एक है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और काल, ये सभी अजीव हैं। इन से आत्मा का अनुग्रह या उपधात नहीं होता। प्रात्मा का उपघात करने वाला पुद्गल द्रव्य है। शरीर, मन, इन्द्रियाँ, श्वासोच्छ्वास, वचन, आदि पुद्गल है। ये चेतन के संसर्ग से चेतनायमान होते हैं। विश्व में रूप, रस, गन्ध, और स्पर्शवाले जितने भी पदार्थ हैं, वे सभी पौद्गलिक हैं / शब्द, प्रकाश, छाया, अन्धकार, सर्दी-गर्मी सभी पुद्गल स्कन्धों की अवस्थाएँ हैं और वही एक आसक्ति का मल केन्द्र है। शरीर के किसी भी स्नायू-संस्थान के विकृत होने पर उसका ज्ञान-विकास रुक जाता है / तथापि यह सत्य है कि प्रात्मा का सर्वतन्त्र-स्वतन्त्र अस्तित्त्व है / वह तेल व बत्ती से भिन्न ज्योति की तरह है। जिस शक्ति से शरीर चिन्मय हो रहा है, वह अन्तःज्योति शरीर से भिन्न है / आत्मा सूक्ष्म कार्मण शरीर के कारण स्थूल शरीर के नष्ट हो जाने पर दूसरे स्थूल शरीर को धारण करता है / इसलिये प्रात्मा और अनात्मा का ज्ञान साधना के लिये मावश्यक है। इसी तरह दण्ड, अदण्ड, क्रिया, प्रक्रिया आदि की चर्चा भी मुमुक्षत्रों के लिए उपयोगी है। __भारतीय चिन्तन में लोकवाद की चर्चा बड़े विस्तार के साथ हुयी है। विश्व के सभी द्रव्यों का आधार "लोक" है / लोकवाद में अनन्त जीव भी हैं तो अजीव भी। धर्म, अधर्म, काल, पुद्गल और जीव जहाँ रहते हैं, वह लोक है। लोक को समन भाव से, सन्तति की दृष्टि से निहारें तो वह अनादि अनन्त है। न कोई द्रव्य नष्ट हो सकता और न कोई असत् से सत् बनता है। जो द्रव्यसंख्या है, उसमें एक परमाणु की भी अभिवृद्धि कोई नहीं कर सकता / प्रतिसमय विनष्ट होने वाले द्रव्यगत पर्यायों की दृष्टि से लोक सान्त है। द्रव्य दृष्टि से लोक शाश्वत है / पर्याय दृष्टि से अशाश्वत है। कार्यों की उत्पत्ति में काल एक साधारण निमित्त है, जो प्रत्येक परिणमनशील द्रव्य के परिणाम में सहायक होता है। वह भी अपने आप में अन्य द्रव्यों की भांति परिणमनशील है। आकाश के जितने हिस्से तक छहों द्रव्य पाये जाते हैं, वह लोक है / और उससे परे केवल आकाशमात्र अलोक है। क्योंकि जीव और पुद्गल की गति और स्थिति में धर्म और अधर्म द्रव्य साधारण निमित्त होते हैं / जहाँ तक धर्म और अधर्म द्रव्य का सद्भाव है, वहाँ तक जीव और पुद्गल की गति और अवस्थिति सम्भव है। एतदर्थ ही आकाश के उस पुरुषाकार मध्यभाग को लोक कहा है जो धर्म, अधर्म द्रव्य के बराबर है। धर्म, अधर्म, लोक के मापदण्ड के सदृश है। इसीलिये लोक की तरह अलोक भी एक है। जैन आगम साहित्य में जीव और अजीव का जैसा स्पष्ट वर्णन है वैसा बौद्ध साहित्य में नहीं है। बौद्ध ग्रन्थ अंगुत्तरनिकाय में लोक अनन्त है या सान्त है ? इस प्रश्न के उत्तर को तथागत बुद्ध ने अव्याकृत कहकर टालने का प्रयास किया है। उन्होंने लोक के सम्बन्ध में इतना ही कहा–रूप, रस, आदि पाँच काम गुण से युक्त हैं। जो मानव इन पाँच कामगुणों का परित्याग करता है, वही लोक के अन्त में विचरण करता है। 8. भायणं सव्वदव्याणं-उत्तराध्ययन 28/9 9. उत्तराध्ययन, सूत्र 28/7 [21] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org