________________ पुण्य और पाप ये दोनों शब्द भारतीय साहित्य में अत्यधिक विश्रुत हैं / शुभ कर्म पुण्य हैं, अशुभ कर्म पाप हैं। पुण्य से जीव को सुख का और पाप से दुःख का अनुभव होता है / पुण्य और पाप इन दोनों के द्रव्य और भाव ये दो प्रकार हैं। जिस कर्म के उदय से जीव को सुखानुभूति होती है वह द्रव्य कर्म है और जीव के दया, करुणा, दान, भावना आदि शुभ परिणाम भाव पुण्य हैं। उसी तरह जिस कर्म के उदय से जीव को दुःख का अनुभव होता है, वह द्रव्य पाप है और जीव के अशुभ परिणाम भावपाप हैं। सांख्यकारिका में भी पुण्य से ऊर्ध्वगमन और पाप से अधोगमन बताया है। जैनाचार्यों ने भी शुभ अध्यवसाय का फल स्वर्ग और अशुभ अध्यवसाय का फल नरक है" कहा है। पुण्य और पाप की भाँति बन्ध और मोक्ष की चर्चा भी भारतीय साहित्य में विस्तार के साथ मिलती है। दो पदार्थों का विशिष्ट सम्बन्ध बन्ध कहलाता है। यों बन्ध को यहाँ पर एक कहा है। पर उस के दो प्रकार हैं। एक भाव बन्ध और दूसरा द्रव्य बन्ध / जिन राग, द्वेष और मोह प्रभाति विकारी भावों से कर्म का बन्ध होता है वे भाव भावबन्ध कहलाते हैं। और कर्म-पुद्गलों का प्रात्मप्रदेशों के सम्बन्ध होना द्रव्यबन्ध है। द्रव्यबन्ध प्रात्मा और पुदगल का सम्बन्ध है। यह पूर्ण सत्य है कि दो द्रव्यों का संयोग हो सकता है पर तादात्म्य नहीं। दो मिलकर एक से प्रतीत हो सकते हैं पर एक की सत्ता समाप्त होकर एक शेष नहीं रह सकता। / उमास्वाति१२ ने लिखा है कि योग के कारण समस्त प्रात्मप्रदेशों के साथ सूक्ष्म कर्म-पूदगल एक क्षेत्रावग्राही हो जाते हैं / अर्थात् जिस क्षेत्र में प्रात्मप्रदेश हैं उसी क्षेत्र में रहे हुए कर्म-पुद्गल जीव के साथ बद्ध हो जाते हैं। इसे प्रदेशबन्ध कहते हैं। प्रात्मा और कर्मशरीर का एक क्षेत्रावगाह के अतिरिक्त अन्य किसी भी प्रकार का कोई रासायनिक-मिश्रण नहीं होता / प्राचीन कर्म-पुद्गलों से नवीन कर्म-पुद्गलों का रासायनिक मिश्रण होता है, पर प्रात्मप्रदेशों से नहीं। जीव के रागादि भावों से प्रात्मप्रदेशों में एक प्रकम्पन होता है। उससे कर्म-योग्य पुदगल प्राकर्षित होते हैं। इस योग से उन' कर्म-वर्गणाओं में प्रकृति, यानि एक विशेष प्रकार का स्वभाव उत्पन्न होता है। यदि वे कर्मपुद्गल ज्ञान में विघ्न उत्पन्न करने वाली क्रिया से प्राकषित होते हैं तो उनमें ज्ञान के प्राच्छादन करने का स्वभाव पड़ेगा। यदि वे रागादि कषाओं से आकर्षित किये जायेंगे तो कषायों की तीव्रता और मन्दता के अनुसार उस कर्म-पुद्गल में फल देने की प्रकृति उत्पन्न होती है। प्रदेशबन्ध और प्रकृतिबन्ध योग से होता है। पौर स्थिति और अनुभाग-बन्ध कषाय होता है। कर्मबन्ध से पूर्णतया मुक्त होना मोक्ष है। मोक्ष का सीधा और सरल अर्थ है--छटना। पानादिकाल से जिन .. कर्मबन्धनों से प्रात्मा जकड़ा हुआ था, वे बन्धन कट जाने से प्रात्मा पूर्णस्वतन्त्र हो जाता है। उसे मुक्ति कहते हैं। बौद्ध-परम्परा में मोक्ष के अर्थ में “निर्वाण' शब्द का प्रयोग हया है। उन्होंने क्लेशों के बुझने के अर्थ में प्रात्मा का बझना मान लिया है, जिससे निर्वाण का सही स्वरूप प्रोझल हो गया है। कर्मों को नष्ट करने का इतना ही अर्थ है कि कर्मपुद्गल प्रात्मा से पृथक् हो जाते हैं। उन कर्मों का अत्यन्त विनाश नहीं होता। किसी भी सत् का अत्यन्त विनाश तीनों-कालों में नहीं होता। पर्यायान्तर होना ही नाश कहा गया है। जो कर्म 10. धर्मेण गमनमूवं गमनमधस्ताद् भवत्यधर्मेण / --सांख्य-४४ 11. क—प्रवचनमार 1, 9, 11, 12, 13, 2,89, ख-समयसार-१५५-१६१ 12. नामप्रत्ययाः सर्वतो योगविशेषात सूक्ष्मैकक्षेत्रावगाहस्थिताः सर्वात्मप्रदेशेष्वनन्तानन्तप्रदेशाः --तत्त्वार्थसूत्र 8/14 13. जीवाद् विश्लेषणं भेदः सतो नात्यन्तसंक्षयः / -प्राप्तपरीक्षा-११५ [ 22 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org