________________ पुद्गल प्रात्मा के साथ सम्पृक्त होने से प्रात्मगुणों का हनन करते थे, जिससे वे कर्मत्व पर्याय से युक्त थे, वह कर्मत्व पर्याय नष्ट हो जाती है। जैसे कर्मबन्धन से मुक्त होकर--आत्मा शुद्ध स्वरूप को प्राप्त हो जाता है, वैसे ही कर्म पुद्गल भी कर्मत्व-पर्याय से मुक्त हो जाता है / जैन दृष्टि से प्रात्मा और कर्म पुद्गल का सम्बन्ध छूट जाना ही मोक्ष है। बन्ध और मोक्ष के पश्चात् एक पाश्रव और एक संवर का उल्लेख किया है। मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये आश्रव हैं। जिन भावों में कर्मों का प्राश्रव होता है, वह भावाश्रव है और कर्म द्रव्य का आना द्रव्याश्रव है। दूसरे शब्दों में यों कह सकते हैं कि पुद्गलों में कर्मत्व पर्याय का विकसित होना द्रव्याश्रव है। से आश्रव के दो प्रकार हैं-एक साम्परायिक प्राश्रव. जो कषायानरञ्जित योग से होने वाले बन्ध का कारण होकर संसार की अभिवद्धि करता है। दूसरा ईर्यापथ आश्रव जो केवल योग से होने वाला है। इसमें कषायाभाव होने से स्थिति एवं विपाक रूप बन्धन नहीं होता। यह आश्रव वीतराग जीवन्मुक्त महात्मानों को ही होता है / कषाय और योग प्रत्येक संसारी आत्मा में रहा हया है। जिससे सप्त कर्मों का प्रतिसमय प्राश्रव होता रहता है। परभव में शरीर आदि की प्राप्ति के लिये प्रायुःकर्म का प्राधव बर्तमान प्रायु के त्रिभाग में होता है, अथवा नौवें भाग में होता है, या सत्तावीसवें भाग में होता है अथवा अन्तर्मुहूर्त अवशेष रहने पर / ' प्राश्रव से विपरीत संवर है। जिन कारणों से कर्मों का बन्ध होता है, उनका निरोध कर देना 'संवर' है। मुख्य रूप से प्राश्रव योग से होता है। अतः योग की निवत्ति ही संवर है।। तथागत बुद्ध ने संवर का उल्लेख किया है। उन्होंने विभाग कर इस प्रकार प्रतिपादन किया है(१) संबर से इन्द्रियों पर नियन्त्रण होता है और इन्द्रियों का संवर होने से वह गुप्तेन्द्रिय बनता है, जिससे इन्द्रियजन्य आश्रव नहीं होता / (2) प्रतिसेवना--भोजन, पान, वस्त्र, चिकित्सा, आदि न करने पर मन प्रसन्न नहीं रहता और मन प्रसन्न न रहने से कर्मबन्ध होता है। अतः मन को प्रसन्न रखने के लिये इनका उपयोग करना चाहिये जिससे प्राश्रव का निरोध हो। यहां यह स्मरण रखना चाहिये कि भोगोपभोग की दृष्टि से उसका उपयोग किया जाये तो वह आश्रव का कारण है। (3) अधिवासना-किसी में शारीरिक कष्ट सहन करने की क्षमता है। उसे शारीरिक कष्ट पसन्द है / तो उसे कष्ट सहन से आश्रव-निरोध होता है। (4) परिवर्जन--क्रूर हाथी, घोड़ा, आदि पशु, सर्प बिच्छ प्रादि जन्तु, गर्त कण्टक स्थान, पाप मित्र ये सभी दुःख के कारण हैं। उन दुःख के कारणों को त्यागने से प्राश्रव का निरोध होता है। (5) विनोदना-हिंसावितर्क, पापवितर्क, काम-वितर्क, आदि बन्धक वितर्कों की भंजना न करने से तज्जन्य प्राश्रव का निरुन्धन होता है। (6) भावना----शुभ भावना से आश्रव का निरुन्धन होता है। यदि शुभ भावना न की जायेगी तो अशुभ भावनाएँ उदबूद्ध होंगी। अत: अशुभ भावना का निरोध करने हेतु शुभ भावना भावना आश्रय के निरुन्धन का कारण है। ---अंगुत्तर निकाय 6 / 58 प्राश्रव और संवर के पश्चात्--वेदना और निर्जरा का उल्लेख है। कर्मों का अनुभव करना "वेदन" है। वह दो प्रकार का है। अबाधाकाल की स्थिति पूर्ण होने पर यथाकाल वेदन करना और कितने ही कर्म, जो कालान्तर में उदय में प्राने योग्य हैं, उन्हें जीव अपने अध्यवसाय विशेष से स्थिति का परिपाक होने के पूर्व ही उदयावलि में खींच लाता है, यह उदीरणा है। उदीरणा के द्वारा खींच कर लाये हुये कर्म का वेदन करना यह दूसरा प्रकार है। बौद्धों ने प्राश्रव का कारण अविद्या बताया है। अविद्या का निरोध करना ही प्राश्रव का निरोध करना है। उन्होंने पाश्रव के कामाश्रव और भयाश्रव और अविद्याश्रव ऐसे तीन भेद किये हैं। -अंगुत्तर निकाय 3,58,6,63 1. सोवक्कमाउया पुण, सेसतिभागे अहव नवमभागे / सत्तावीसइमे वा, अंतमुहुत्तं लिमवावि / --संग्रहणी सूत्र, गा. 302 [23] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org