________________ प्रस्तुत मागम में समवाय की भी विषय-सूची दी गई है। वह इस प्रकार है --- (1) जीव, अजीव, लोक, अलोक, स्व-समय और पर-समय का समवतार (2) एक से सो संख्या तक के विषयों का विकास (3) द्वादशांगी गणिपिटक का वर्णन, (4) आहार (5) उच्छ्वास (6) लेश्या (7) प्रावास (8) उपपात (9) व्यवन (10) अवगाह (11) वेदना (12) विधान (13) उपयोग (14) योग (15) इन्द्रिय (16) कषाय (17) योनि (18) कुलकर (19) तीर्थकर (20) गणधर (21) चक्रवर्ती (22) बलदेव-वासुदेव / दोनों प्रागमों में आयी हुयी विषय-सूचियों का गहराई से अध्ययन करने पर यह स्पष्ट परिज्ञात होता है कि नन्दीसूत्र में जो प्रामम-विषयों की सूची पायी है, वह बहुत ही संक्षिप्त है और समवायांग में जो विषय-सूची है, वह बहुत ही विस्तृत है / नन्दी और समवायांग में सौ तक एकोत्तरिका वृद्धि होती है, ऐसा स्पष्ट संकेत किया गया है, किन्तु उन में अनेकोतरिका वृद्धि का निर्देश नहीं है, नन्दीचणि में जिनदास गणि महत्तर ने, नन्दी हरिभद्रीया वृत्ति में आचार्य हरिभद्र ने, और नन्दी की वृत्ति में, प्राचार्य मलयगिरि ने अनेकोत्तरिका वृद्धि का कोई भी संकेत नहीं किया है / प्राचार्य अभयदेव ने समवायांग वृत्ति में अनेकोतरिका वृद्धि का उल्लेख किया है। प्राचार्य अभयदेव के मत के अनुसार सौ तक एकोतरिका वृद्धि होती है और उसके पश्चात् अनेकोतरिका वृद्धि होती है।' विज्ञों का ऐसा अभिमत है कि वत्तिकार ने समवायांग के विवरण के आधार पर यह उल्लेख नहीं किया है। प्रपितु समवायांग में जो पाठ प्राप्त है, उसी के आधार से उन्होंने यह वर्णन किया है। यह सहज ही जिज्ञासा हो सकती है कि नन्दीसूत्र में समवायांग का जो परिचय दिया गया है, क्या उस परिचय से वर्तमान में समुपलब्ध समवायांग पृथक है ? या--जो वर्तमान में समवायांग है, वह देवद्धिगणि क्षमाश्रमण की वाचना का नहीं है। यदि होता तो दोनों विवरणों में अन्तर क्यों होता ? समाधान है-नन्दी में समवायांग का जो विवरण है उसमें अन्तिम वर्णन द्वादशांगी का है। परन्तु वर्तमान में जो समवायांग है उसमें द्वादशांगी से भागे अनेक विषयों का प्रतिपादन किया गया है। इसलिए नन्दीगत समवायांग के विवरण से वह आकार की दृष्टि से पृथक् है। हमने स्थानांग सूत्र की प्रस्तावना में यह स्पष्ट किया है कि प्रागमों की श्रमण भगवान् महावीर के पश्चात् पांच वाचनाएं हुयी। प्राचार्य अभयदेव ने प्रस्तुत मागम की वृत्ति में प्रस्तुत प्रागम की बृहद् वाचना का उल्लेख किया है। इस से यह अनुमान किया जा सकता है कि नन्दी में समवाय का जो परिचय देववाचक ने दिया है यह लघवाचना की दृष्टि से दिया हो। समवायांग के परिवधित आकार को लेकर कुछ मनीषियों ने दो अनुमान किये हैं। वे दोनों अनुमान कहाँ तक सत्य-तथ्य पर आधत हैं, यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता / मेरी दृष्टि से यदि समवायांग पृथक् वाचना का होता तो इस सम्बन्ध में प्राचीन साहित्य में कहीं न कहीं कुछ अनुश्रुतियां अवश्य मिलती। पर समवायांग के सम्बन्ध में कोई भी अनुश्रुति नहीं है। उदाहरण के रूप में ज्योतिषकरण्ड ग्रन्थ माथुरी वाचना का है, पर समवायांग के सम्बन्ध में ऐसा कुछ भी नहीं है। अत: विशों का प्रथम अनुमान केबल अनुमान ही है। उसके पीछे वास्तविकता का अभाव है। दूसरे अनुमान के सम्बन्ध में भी यह नम्र निवेदन है कि भगवती सूत्र में कुलकरों और तीर्थंकरों आदि के पूर्ण विवरण के सम्बन्ध में समवायांग के अन्तिम भाग का अवलोकन 5. समवायांग, प्रकीर्णक 6. च चब्दस्य चान्यत्र सम्बन्धादेकोत्तरिका अने कोतरिका च तत्र शतं यावदेकोतरिका परतोऽनेकोतरिकेति / -समवायांग वृत्ति, पत्र 105 7. भगवतीसूत्र, शतक 5, उ. 5, पृ.८२६ ---भाग 2 सैलाना (म.प्र.) [18] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org