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________________ प्रस्तावना समवायांगसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन (प्रथम संस्करण से) नाम-बोध श्रमण भगवान महावीर की विमल वाणी का संकलन-प्राकलन सर्वप्रथम उनके प्रधान शिष्य गणधरों ने किया। वह संकलन-पाकलन अंग सूत्रों के रूप में विश्रुत है। अंग बारह हैं-पायार, सूयगड, ठाण, समवाय, विवाहपण्णत्ति, नायाधम्मकहा, उवासगदसा, अंतगडदसा, अणुत्तरोववाइयदसा, पण्हाबागरण, विवागसुय और दिठिवाय।' वर्तमान समय में बारहवाँ अंग दृष्टिवाद अनुपलब्ध है। शेष ग्यारह अंगों में समवायं का चतुर्थ स्थान है। मागम साहित्य में इसका अनठा स्थान है। जीवविज्ञान, परमाणुविज्ञान, सृष्टिविद्या, अध्यात्मविद्या, तत्त्वविद्या, इतिहास के महत्त्वपूर्ण तथ्यों का यह अनुपम कोष है। आचार्य अभयदेव ने लिखा है-प्रस्तुत प्रागम में जीव, अजीव प्रभूति पदार्थों का परिच्छेद या समवतार है। अतः इस पागम का नाम समवाय या समवानी है। सिद्धान्तचक्रवर्ती प्राचार्य नेमिचन्द्र ने लिखा है कि इस में जीव प्रादि पदार्थों का सादृश्य-सामान्य से निर्णय लिया गया है। अतः इस का नाम "समवाय" है।' विषय-वस्तु प्राचार्य देवबाचक ने समवायांग की विषय-सूची दी है, वह इस प्रकार है(१) जीव, अजीव, लोक, अलोक एवं स्वसमय, पर-समय का-समवतार / (2) एक से लेकर सौ तक की संख्या का विकास / (3) द्वादशांग गणिपिटक का परिचय / समवायांग, द्वादशांगाधिकार / समिति-सम्यक् अवेत्याधिक्येन अयनमयः-परिच्छेदो, जीवा-जीवादिविविधिपदार्थसार्थस्य यस्मिन्नसो समवायः, समवयन्ति वा समवसरन्ति सम्मिलन्ति नानाविधा प्रात्मादयो भावा अभिधेयतया यस्मिन्नसी समवाय इति ! -समवायांगवृत्ति, पत्र 1 सं---संग्रहेण सादृश्यसामान्येन अवेयंते ज्ञायन्ते जीवादिपदार्था द्रव्यक्षेत्रकालभावानाश्रित्य अस्मिन्निति समवायांगम्। -गोम्मटसार जीवकाण्ड, जीवप्रबोधिनी टीका, गा. 356 से कि तं समावाए ? समवाए णं जीवा समासिज्जति, अजीबा समासिज्जंति, जीवाजीवा समासिज्जंति / ससमए समासिज्जइ, परसमए समासिज्जइ, ससमयपरसमए समासिज्जइ / लोए समासिज्जइ अलोए समासिज्जइ, लोयालोए समासिज्जइ। समवाए णं एगाइयाणं एगुत्तरियाणं ठाणसयं निडिढयाणं भावाणं परूबणा आपविज्जइ / दुवालसविहस्स य गणिपिडगस्स पल्लवग्गे समासिज्जइ / नन्दीसूत्र 83 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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