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________________ श्रयस्त्रिशस्थानक समवाय] 25. शैक्ष, रात्निक के द्वारा धर्मकथा कहते समय 'तुम्हें स्मरण नहीं' इस प्रकार से बोले तो यह शैक्ष की पच्चीसवीं पाशातना है। 26. शैक्ष, रात्निक के द्वारा धर्मकथा कहते समय 'बस करो' इत्यादि कहे तो यह शैक्ष की छब्बीसवीं पाशातना है। 27. शैक्ष, रात्निक के द्वारा धर्मकथा कहते समय यदि परिषद् को भेदन करे तो यह शैक्ष की सत्ताईसवीं पाशातना है। 28. शैक्ष, रात्निक साधु के धर्मकथा कहते हुए उस सभा के नहीं उठने पर दूसरी या तीसरी वार भी उसी कथा को कहे तो यह शैक्ष की अट्ठाईसवीं आशातना है। 29. शैक्ष, रात्निक साधु के धर्मकथा कहते हुए यदि कथा की काट करे तो यह शैक्ष की उनतीसवीं आशातना है। 29. शैक्ष यदि रात्निक साधु के शय्या-संस्तारक को पैर से ठुकरावे तो यह शैक्ष की उनतीसवीं अाशातना है। 30. शैक्ष यदि रात्निक साधु के शय्या या आसन पर खड़ा होता, बैठता-सोता है, तो यह शैक्ष की तीसवीं आशातना है। 31-32. शैक्ष यदि रात्निक साधु से ऊंचे या समान आसन पर बैठता है तो यह शैक्ष की आशातना है। 33. रानिक के कुछ कहने पर शैक्ष अपने आसन पर बैठा-बैठा उत्तर दे, यह शैक्ष की तेतीसवीं पाशातना है। विवेचन--नवीन दीक्षित साधु का कर्तव्य है कि वह अपने प्राचार्य, उपाध्याय और दीक्षापर्याय में ज्येष्ठ साधु का चलते, उठते, बैठते समय उनके द्वारा कुछ पूछने पर, गोचरी करते समय सदा हो उनके विनय-सम्मान का ध्यान रखे / यदि वह अपने इस कर्तव्य में चूकता है, तो उनकी अाशातना करता है और अपने मोक्ष के साधनों को खंडित करता है। इसी बात को ध्यान में रख कर ये तेतीस पाशातनाएं कही गई हैं। प्रकृत सूत्र में चार पाशातनामों का निर्देश कर शेष की यावत् पद से सूचना की गई है / उनका दशाश्रुत के अनुसार स्वरूप-निरूपण किया गया है / २१६-चमरस्स सं असुरिंदस्त णं असुररण्णो चमरचंचाए रायहाणीए एक्कमेक्कवाराए तेत्तीसंतेत्तीसं भोमा पण्णता / महाविदेहे णं वासे तेत्तीसं जोयणसहस्साइं साइरेगाई विक्खंभेणं पण्णत्ते / जया णं सूरिए बाहिराणंतरं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता णं चारं चरइ तया णं इहगयस्स पुरिसस्स तेत्तीसाए जोयणसहस्सेहि किंचि विसेसूणेहिं चक्खुप्फासं हन्वमागच्छइ / असुरेन्द्र असुरराज चमर की राजधानी चमरचंचा नगरी में प्रत्येक द्वार के बाहर तेतीसतेतीस भौम (नगर के आकार वाले विशिष्ट स्थान) कहे गये हैं। महाविदेह वर्ष (क्षेत्र) कुछ अधिक तेतीस हजार योजन विस्तार वाला है / जब सूर्य सर्वबाह्य मंडल से भीतर की ओर तीसरे मंडल पर पाकर संचार करता है, तब वह इस भरतक्षेत्र-गत मनुष्य के कुछ विशेष कम तेतीस हजार योजन की दूरी से दृष्टिगोचर होता है। २१७-इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं मेरइयाणं तेत्तीसं पलिओवमाई ठिई पण्णता / अहेसत्तमाए पुढवीए काल-महाकाल-रोरुय-महारोरुएसु नेरइयाणं उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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