________________ 100] [समवायाङ्गसूत्र वमाइं ठिई पण्णत्ता। अप्पइट्ठाणनरए नेरइयाणं अजहण्णमणुक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। असुरकुमाराणं प्रत्थेगइयाणं देवाणं तेत्तीसं पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता। सोहम्मीसाणेसु अत्थेगइयाणं देवाणं तेत्तीसं पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता। ___ इस रत्नप्रभा पृथिवी के कितनेक नारकों को स्थिति तेतीस पल्योपम कही गई है। अधस्तन सातवीं पृथिवी के काल, महाकाल, रोरुक और महारौरुक नारकावासों के नारकों की उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम कही गई है / उसी सातवीं पृथिवी के अप्रतिष्ठान नरक में नारकों की अजघन्यअनुत्कृष्ट (जधन्य और उत्कृष्ट के भेद से रहित पूरी) तेतीस सागरोपम स्थिति कही गई है। कितनेक असुरकुमार देवों की स्थिति तेतीस पल्योपम कही गई है। सौधर्म-ईशान कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति तेतीस पल्योपम कही गई है। २१८-विजय-वेजयंत-जयंत-अपराजिएसु विमाणेसु उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता / जे देवा सब्वट्ठसिद्धे महाविमाणे देवत्ताए उबवण्णा, तेसि णं देवाणं अजहण्णमणुक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं ठिई पण्णता / ते णं देवा तेत्तीसाए अद्धमासेहि आणमंति वा, पाणमंति वा, उस्ससंति वा, निस्ससंति वा / तेसि णं देवाणं तेत्तीसाए वाससहस्सेहिं पाहार? समुप्पज्जइ / संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे तेत्तीसं भवग्गणेहि सिज्झिस्संति बुज्झिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सम्वदुक्खाणमंतं करिस्सति / विजय-वैजयन्त, जयन्त और अपराजित इन चार अनुत्तर विमानों में देवों की उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोषम कही गई है / जो देव सर्वार्थसिद्ध नामक पाँचवें अनुत्तर महाविमान में देवरूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की अजघन्य-अनुत्कृष्ट स्थिति पूरे तेतीस सागरोपम कही गई है। वे देव तेतीस अर्धमासों (साढ़े सोलह मासों) के बाद आन-प्राण अथवा उच्छ्वास-नि:श्वास लेते हैं / उन देवों के तेतीस हजार वर्षों के बाद आहार की इच्छा उत्पन्न होती है। कितनेक भव्यसिद्धिक जीव तेतीस भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परम निर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे। - यहाँ इतना विशेष ज्ञातव्य है कि सर्वार्थसिद्ध महाविमान के देव तो नियम से एक भव ग्रहण करके मुक्त होते हैं और विजयादि शेष चार विमानों के देवों में से कोई एक भव ग्रहण करके मुक्त होता है और कोई दो मनुष्यभव ग्रहण करके मुक्त होता है / // त्रयस्त्रिशत्स्थानक समवाय समाप्त / / चतुरिंत्रशत्स्थानक-समवाय 219 –चोत्तीसं बुद्धाइसेसा पण्णत्ता। तं जहा-अवट्ठिए केस-मंसु-रोम-नहे 1, निरामया निरुवलेवा गायलट्ठी, गोक्खीरपंडुरे मंससोणिए 3, पउमुप्पलगंधिए उस्सासनिस्सासे 4, पच्छन्ने आहार-नीहारे अदिस्से मंसचक्खुणा 5, आगासगयं चक्कं 6, आगासगयं छत्तं 7, आगासगयाओ सेयवरचामराओ 7, प्रागासफालिग्रामयं सपायपीढं सीहासणं 9, आगासगओ कुडभीसहस्सपरिमंडि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org