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________________ चतुस्त्रिशत्स्थानक समवाय] [101 आभिराओ इंदज्झओ पुरओ गच्छइ 10, जत्थ जत्थ वि य णं अरहंता भगवंतो चिट्ठति वा निसीयंति स्थ तत्थ वियणं जक्खा देवा संछन्नापत्त-परफ-पल्लवसमाउलो सच्छत्तो सज्झम्रो सघंटो सपडागो असोगवरपायवो अभिसंजायइ 11, ईसि पिढओ मउडठाणमि तेयमंडलं अभिसंजाइ, अंधकारे वि य णं दस दिसाओ पभासेइ 12, बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे 13, अहोसिरा कंटया भवंति 14, उउविवरीया सुहफासा भवंति 15, सीयलेणं सुहफासेणं सुरभिणा मारुएणं जोयणपरिमंडलं सवओ समंतासंपमज्जिज्जइ 16, जुत्तफुसिएणं मेहेण य निहयरयरेणूयं किज्जइ 17, जल-थलभासुरपभूतेणं विट्ठाइणा दसद्धवण्णणं कुसुमेणं जाणुस्सेहप्पमाणमित्ते पुष्फोवयारे किज्जइ 18, अमणुण्णाणं सद्दफरिस-रस-रूव-गंधाणं अवकरिसो भवइ 19, मणुण्णाणं सद्द-फरिस-रस-रूव-गंधाणं पाउम्भावो भवइ 20, पच्चाहरओ वि य णं हिययगमणीम्रो जोयणनीहारी सरो 21, भगवं च णं अद्धमागहीए भासाए धम्ममाइक्खइ 22. सा वियणं अद्धमागही भासा भासिज्जमाणी तेसि सम्वेसि आरियमणारियाणं दुप्पय-च उप-मिय-पसु-पक्खि-सरीसिवाणं अप्पणो हिय-सिव-सुहय-भासत्ताए परिणमइ २३,पुधबद्धवेरा वि य णं देवासुर-नाग-सुवण्ण-जक्ख-रक्खस-किनर-किंपुरिस-गरुल-गंधव्व-महोरगा अरहो पायमूले पसंतचित्तमाणसा धम्मं निसामंति 24, अण्णउत्थियपावयणिया वि य णं प्रागया बंदंति 25, आगया समाणा अरहओ पायमूले निप्पलिवयणा हवंति 26, जओ जओ वि य गं अरहंतो भगवंतो विहरंति तओ तओ वि य णं जोयणपणवीसाएणं ईती न भवइ 27, मारी न भवइ 28, सचक्कं न भवइ 29, परचक्कं न भवइ 30, अइवुट्ठी न भवइ 31, अणावुट्ठी न भवइ 32, दुबिभक्खं न भवई 33, पुवुप्पण्णा वि य णं उप्पाइया वाहीओ खिप्पमेव उवसमति 34 / बुद्धों के अर्थात् तीर्थंकर भगवन्तों के चौतीस अतिशय कहे गये हैं / जैसे-- 1. अवस्थित केश, श्मश्रु, रोम, नख होना, अर्थात् नख और केश आदि का नहीं बढ़ना / 2. निरामय-रोगादि से रहित, निरुपलेप-मल रहित निर्मल देह-लता होना / 3. रक्त और मांस का गाय के दूध के समान श्वेत वर्ण होना। 4. पद्म-कमल के समान सुगन्धित उच्छ्वास निःश्वास होना। 5. मांस-चक्षु से अदृश्य प्रच्छन्न पाहार और नीहार होना / 6. आकाश में धर्मचक्र का चलना / 7. अाकाश में तीन छत्रों का घूमते हुए रहना / 8. आकाश में उत्तम श्वेत चामरों का ढोला जाना / 9. आकाश के समान निर्मल स्फटिकमय पादपीठयुक्त सिंहासन का होना। 10. आकाश में हजार लघु पताकाओं से युक्त इन्द्रध्वज का आगे-आगे चलना। 11. जहाँ-जहाँ भी अरहन्त भगवन्त ठहरते या बैठते हैं, वहाँ-वहाँ यक्ष देवों के द्वारा पत्र, पुष्प, पल्लवों से व्याप्त, छत्र, ध्वजा, घंटा और पताका से युक्त श्रेष्ठ अशोक वृक्ष का निर्मित होना। 12. मस्तक के कुछ पीछे तेजमंडल (भामंडल) का होना, जो अन्धकार में भी (रात्रि के समय भी) दशों दिशानों को प्रकाशित करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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