________________ 102 // [समवायाङ्गसूत्र 13. जहाँ भी तीर्थंकरों का विहार हो, उस भूमिभाग का बहुसम (एकदम समतल) और रमणीय होना। 14. विहार-स्थल के कांटों का अधोमुख हो जाना। 15. सभी ऋतुओं का शरीर के अनुकूल सुखद स्पर्श वाली होना।। 16. जहाँ तीर्थकर विराजते हैं, वहाँ की एक योजन भूमि का शीतल, सुखस्पर्शयुक्त सुगन्धित पावन से सर्व अोर संप्रमार्जन होना। 17. मन्द, सुगन्धित जल-बिन्दुओं से मेघ के द्वारा भूमि का धुलि-रहित होना। 18. जल और स्थल में खिलने वाले पांच वर्ण के पुष्पों से घुटने प्रमाण भूमिभाग का पुष्पोपचार होना, अर्थात् आच्छादित किया जाना / 19. अमनोज्ञ (अप्रिय) शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गन्ध का अभाव होना / 20. मनोज्ञ (प्रिय) शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गन्ध का प्रादुर्भाव होना। 21. धर्मोपदेश के समय हृदय को प्रिय लगनेवाला और एक योजन तक फैलनेवाला स्वर होना। 22. अर्धमागधी भाषा में भगवान् का धर्मोपदेश देना / 23. वह अर्धमगधी भाषा बोली जाती हुई सभी आर्य अनार्य पुरुषों के लिए तथा द्विपद पक्षी और चतुष्पद मृग, पशु आदि जानवरों के लिए और पेट के बल रेंगने वाले सर्पादि के लिए अपनी-अपनी हितकर, शिवकर सुखद भाषारूप से परिणत हो जाती है / 24. पूर्वबद्ध वैर वाले भो [मनुष्य] देव, असुर, नाग, सुपर्ण, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किम्पुरुष, गरुड, गन्धर्व और महोरग भी अरहन्तों के पादमूल में (परस्पर वैर भूलकर) प्रशान्त चित्त होकर हर्षित मन से धर्म श्रवण करते हैं। 25. अन्य तीथिक (परमतावलम्बी) प्रावचनिक (व्याख्यानदाता) पुरुष भी आकर भगवान् की वन्दना करते हैं। 26. वे वादी लोग भी अरहन्त के पादमूल में वचन-रहित (निरुत्तर) हो जाते हैं / 27. जहाँ-जहाँ से भी अरहन्त भगवन्त विहार करते हैं, वहाँ-वहाँ पच्चीस योजन तक ईति भीति नहीं होती है।। 28. मनुष्यों को मारने वाली मारी (हैजा-प्लेग आदि भयंकर बीमारी) नहीं होती है। 29. स्वचक्र (अपने राज्य की सेना) का भय नहीं होता। 30. परचक्र (शत्रु की सेना) का भय नहीं होता। 31. अतिवृष्टि (भारी जलवर्षा) नहीं होती। 32. अनावृष्टि नहीं होती, अर्थात् सूखा नहीं पड़ता। 33. दुर्भिक्ष (दुष्काल) नहीं होता। 34. भगवान् के विहार से पूर्व उत्पन्न हुई व्याधियाँ भी शीघ्र ही शान्त हो जाती हैं और रक्त-वर्षा आदि उत्पात नहीं होते हैं। विवेचन उपर्युक्त चौतीस अतिशयों में से द्वितीय प्रादि चार अतिशय तीर्थंकरों के जन्म से हो होते हैं। छठे आकाश-गत चक्र से लेकर बीस तक के अतिशय घातिकर्म चतुष्क के क्षय होने पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org