________________ पञ्चत्रिशस्थानक समवाय] होते हैं और शेष देवकृत अतिशय जानना चाहिए। दिगम्बर परम्परा में प्रायः ये ही अतिशय कुछ पाठ-भेद से मिलते हैं, वहाँ जन्म-जात दश अतिशय, केवलज्ञान-जनित दश अतिशय और देवकृत चौदह अतिशय कहे गये हैं। २२०-जम्बुद्दीवेणं दीवे चउत्तीसं चक्कट्टिविजया पण्णता / तं जहा-बत्तीसं महाविदेहे, दो भरहे एरवए / जम्बुद्दीवे णं दीवे चोत्तीसं दोहवेयड्डा पण्णत्ता / जंबुद्दीवे णं दीवे उक्कोसपए चोत्तीस तित्थंकरा समुपज्जति। जम्बूद्वीप नामक इस द्वीप में चक्रवर्ती के विजयक्षेत्र चौतीस कहे गये हैं। जैसे-महाविदेह में बत्तीस, भारत क्षेत्र एक और ऐरवत क्षेत्र एक / [इसी प्रकार] जम्बूद्वीप नामक इस द्वीप में चौतीस दीर्घ वैताढ्य कहे गये हैं / जम्बूद्वीप नामक द्वीप में उत्कृष्ट रूप से चौतीस तीर्थंकर [एक साथ] उत्पन्न होते हैं। २२१-चमरस्स णं प्रसुरिंवस्स असुररण्णो चोत्तीसं भवणावाससयसहस्सा पण्णत्ता / पढमपंचम-छट्ठी-सत्तमासु चउसु पुढयोसु चोत्तीसं निरयावाससयसहस्सा पण्णत्ता। असुरेन्द्र असुरराज चमर के चौतीस लाख भवनावास कहे गये हैं / पहिली, पाँचवीं, छठी और सातवीं, इन चार पृथिवियों में चौंतीस लाख (३०+३+पाँच कम एक लाख और 5= 34) नारकावास कहे गये हैं। // चतुस्त्रिशत्स्थानक समवाय समाप्त / पञ्चत्रिशत्स्थानक-समवाय 222 -पणतीस सच्चवयणाइसेसा पण्णत्ता। पैतीस सत्यवचन के अतिशय कहे गये हैं। विवेचन-मूल सूत्र में इन पैतीस वचनातिशयों के नामों का उल्लेख नहीं है और संस्कृत टोकाकार लिखते हैं कि ये पागम में भी कहीं दृष्टिगोचर नहीं हुए हैं। उन्होंने ग्रन्थान्तरों में प्रतिपादित वचन के पैंतीस गुणों का उल्लेख किया है, जो इस प्रकार हैं 1. संस्कारवत्व-वचनों का व्याकरण-संस्कार से युक्त होना। 2. उदात्तत्व-उच्च स्वर से परिपूर्ण होना। 3. उपचारोपेतत्व-ग्रामीणता से रहित होना। 4. गम्भीरशब्दत्व-मेघ के समान गम्भीर शब्दों से युक्त होना। 5. अनुनादित्व-प्रत्येक शब्द के यथार्थ उच्चारण से युक्त होना / 6. दक्षिणत्व-वचनों का सरलता-युक्त होना। 7. उपनीतरागत्व-यथोचित राग-रागिणी से युक्त होना। ये सात अतिशय शब्द-सौन्दर्य की अपेक्षा से जानना चाहिए। आगे कहे जाने वाले अतिशय अर्थ-गौरव की अपेक्षा रखते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org