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________________ ने संक्षेप और मोघ ये दो गुणस्थान के पर्यायवाची माने हैं / कर्मग्रन्थ 167 में जिन्हें चौदह जीवस्थान बताया है, उन्हें समवाय में चौदह भूतग्राम की संज्ञा दी गई है। जिन्हें कर्मग्रन्थ में गुणस्थान कहा है, उन्हें समवाय में जीवस्थान कहा है। इस प्रकार कर्म ग्रंथ और समवाय में संज्ञाभेद है, अर्थभेद नहीं है। समवायांग में जीवस्थानों की रचना का अाधार कर्म-विशुद्धि बताया है / प्राचार्य अभयदेव१६८ ने गुणस्थानों को मोहनीय कर्मों की दिशुद्धि से निष्पन्न बताया है। नेमिचन्द्र 166 ने लिखा है-प्रथम चार गुणस्थान दर्शन मोह के उदय प्रादि से होते हैं और आगे के पाठ गुणस्थान चारित्र मोह के क्षयोपशम आदि से निष्पन्न होते हैं। शेष दो योग के भावाभाव के कारण / यहाँ पर संक्षेप में गुणस्थानों का स्वरूप उजागर हुमा है / इस तरह चौदहवें समवाय में बहुत ही उपयोगी सामग्री का संयोजन है। पन्द्रहवां व सोलहवां समवाय : एक विश्लेषण पन्द्रहवें समवाय में पन्द्रह परम अधार्मिक देव, नमि अर्हत् की पन्द्रह धनुष की ऊंचाई, राहु के दो प्रकार, चन्द्र के साथ पन्द्रह मुहर्त तक छह नक्षत्रों का रहना, चैत्र और आश्विन माह में पन्द्रह-पन्द्रह मुहूर्त के दिन व रात्रि होना, विद्यानुवाद पूर्व के पन्द्रह अर्थाधिकार, मानव के पन्द्रह प्रकार के प्रयोग तथा नारकों व देवों की पन्द्रह पल्योपम व सागरोपम की स्थिति का वर्णन है। सोलहवें समवाय में सूत्रकृतांग सूत्र के प्रथम श्रु तस्कन्ध के सोलह अध्ययन कहे हैं। अनन्तानुबन्धी प्रादि सोलह कषाय हैं। मेरुपर्वत के सोलह नाम, भगवान पार्श्व के सोलह हजार श्रमण, प्रात्मप्रवाद पूर्व के सोलह अधिकार, चमरचंचा और बलीचंचा राजधानी का सोलह हजार योजन का आयाम विष्कम्भ, नारकों व देवों के सोलह पल्योपम तथा सोलह सागरोपम की स्थिति और सोलह भव कर मोक्ष जानेवाले जीवों का वर्णन है। प्रस्तुत समवाय' में द्वितीय अंग सूत्रकृतांग के अध्ययनों की जानकारी दी गई है। सूत्रकृतांग का दार्शनिक पागम की दृष्टि से गौरवपूर्ण स्थान है। जिसमें परमत का खण्डन और स्वमत का मण्डन किया गया है। सूत्रकृतांग की तुलना बौद्धपरम्परा के अभिधम्म पिटक से की जा सकती है, जिसमें बुद्ध ने अपने युग में प्रचलित बासठ मतों का खण्डन कर स्वमत की संस्थापना की है। वैसे ही सुत्रकृतांग में 363 अन्य यूथिक मतों का खण्डन कर स्वमत की संस्थापना की है। प्रस्तुत समवाय में ऐतिहासिक दृष्टि से भगवान् पार्व के सोलह हजार श्रमणों का उल्लेख हुअा है। इस तरह प्रस्तुत समवाय का अलग-थलग महत्व है। सत्तरहवां व अठारहवां समवाय : एक विश्लेषण सत्तरहवें समवाय में सत्तरह प्रकार का संयम और असंयम, मानुषोत्तर पर्वत की ऊंचाई प्रादि, सत्तरह प्रकार के मरण, दशबे सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान में सत्तरह कर्मप्रकृतियों का बन्ध तथा नारकीय और देवों की सत्तरह पल्योपम व सागरोपम की स्थिति का वर्णन कर सतरह भव करके मोक्ष में जाने वाले जीवों का वर्णन है। ___ सर्वप्रथम संयम और असंयम की चर्चा है। प्रागम-साहित्य में अनेक स्थलों पर संयम और असंयम 167. कर्मग्रन्थ 4-2 168. समवायांग वृत्ति पत्र-२६ 169. गोम्मटसार गाथा 12, 13 [43] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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