________________ तेरहवां व चौदहवां समवाय : एक विश्लेषण तेहरवें समवाय में तेरह क्रिया-स्थान, सौधर्म, ईशानकल्प में तेरह विमान प्रस्तट, प्राणायु नामक बारहवें पूर्व में तेरह वस्तुनामक अधिकार, गर्भज तिर्यंच, पंचेन्द्रिय में तेरह प्रकार के योग, सूर्य मण्डल, तथा नारकीय व देवों की तेरह पल्योपम व तेरह सागरोपम स्थिति का निरूपण है। क्रिया आदि के सम्बन्ध में पूर्व पृष्ठों पर विस्तार के साथ लिखा जा चुका है। चौदहवें समवाय में चौदह भूतग्राम, चौदह पूर्व, चौदह हजार भगवान् महावीर के श्रमण, चौदह जीवस्थान, चक्रवती के चौदह रत्न, चौदह महानदियां नारक व देवों की चौदह पल्योपम व चौदह सागरोपम की स्थिति के साथ चौदह भव कर मोक्ष जाने वाले जीवों का वर्णन है। यहां पर सर्वप्रथम चौदह भूतग्राम का उल्लेख हुआ है / भूत अर्थात् जीव और ग्राम का अर्थ है समूह, अर्थात् जीवों के समूह को भूतग्राम कहते हैं। समवायांग की तरह भगवती सूत्र 56 में भी इन भेदों का उल्लेख हुअा है। इन में सात अपर्याप्त हैं और सात पर्याप्त हैं। प्राहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा और मन ये छह पर्याप्तियाँ हैं। पृथ्वी ग्रादि एकेन्द्रिय जीवों में चार पर्याप्तियाँ होती हैं। बेन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय और समूच्छिम मनुष्य में पांच पर्याप्तियाँ होती हैं। संज्ञी तिर्यञ्च मनुष्य नारक प्रौर देव में छह पर्याप्तियां होती है। जिस जीव में जितनी पर्याप्तियाँ सम्भव हैं, उन्हें जब तक पूर्ण न कर ले तब तक बह जीव की अपर्याप्त अवस्था है और उन्हें पूर्ण कर लेना पर्याप्त अवस्था है / इस तरह पर्याप्त और अपर्याप्त के मिलाकर चौदह प्रकार किये गये हैं। इस के बाद चौदह पूर्वो का उल्लेख है। पूर्व श्रुत, विज्ञान का असीम कोष है। पर अत्यन्त परिताप है कि वह कोष श्रमण भगवान महावीर के पश्चात् भयकर द्वादशवर्षीय दुष्काल के कारण, तथा स्मृति दौर्बल्य आदि के कारण नष्ट हो गया। उस के पश्चात् चौदह जीवस्थानों का उल्लेख है। जीवस्थान को ही समयसार में प्राकृत पंचसंग्रह 61 व कर्मग्रन्थ'६२ में 'गुणस्थान' कहा है। प्राचार्य नेमिचन्द्र 113 ने जीवों को गुण कहा है। चौदह जीवस्थान कर्मों के उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम, आदि भावाभावजनित अवस्थाओं से निष्पन्न होते हैं। परिणाम और परिणामी का अभेदोपचार करने से जीवस्थान को गणस्थान कहा है। गोम्मटसार 164 में गुणस्थान को जीव-समास भी कहा है / षडखण्डागम धवलावत्ति 64 में लिखा है कि जीव गुणों में रहता है, अतः उसे जीवसमास कहते हैं। कर्म के उदय से जो गुण उत्पन्न होते हैं, वह प्रौदयिक हैं / कर्म के उपशम से जो गुण उत्पन्न होते हैं, वह औपशामिक हैं। कर्म के क्षयोपशम से जो गुण उत्पन्न होते हैं, वह क्षायोपमिक हैं / कर्म के क्षय से उत्पन्न होने वाले गुण क्षायिक हैं। कर्म के उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम के बिना जो गुण स्वभावत: पाये जाते हैं, वे पारिणामिक हैं। इन गुणों के कारण जीव को भी गुण कहा गया है। जीवस्थान को समवायांग के बाद के साहित्य में गुणस्थान कहा गया है। प्राचार्य नेमिचन्द्र 166 159. भगवती सूत्र-शतक 25 उद्देश-१, पृ. 350 160. समयसार गाथा 55 161. प्राकृतपंचसंग्रह 1/3-5 162. कर्मग्रन्थ 4/1 163. गोम्मटमार गाथा 7 164. गोम्मटसार गाथा 10 165. षड्खण्डागम धवलावृत्ति, प्रथम खण्ड 2-16-61 166. गोम्मटसार गाथा 3 [ 42] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org