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________________ इस के आगे कृतिकर्म के बारह आवर्त बताये गये हैं। किन्तु विवेचन में जैसा चाहिए वैसा विषय को स्पष्ट नहीं किया जा सका है। प्रस्तुत माथा अावश्यकनियुक्ति 157 में इसी प्रकार पायी है, नियुक्ति में विषय को पूर्ण रूप से स्पष्ट किया गया है और कहा गया है कि पच्चीस आवश्यक से परिशुद्ध यदि बन्दना की जाये तो वन्दनकर्ता परिनिर्वाण को प्राप्त होता है या विमानवासी देव होता है। सद्गुरु की बन्दना "इच्छामि खमासमणो" वंदिऊं जावणिज्जाए मिसीहियाए अणजाणह, मे मिउग्गहं निसोहि अहोकायं कायसंफासं खमणिज्जो मे किलामो अप्पकिलंताणं बहसुभेणं भे दिवसो / बइक्कतो? जत्ता भे, जवणिज्जं च भे?" के पाठ से दो बार की जाती है। . 'इच्छामि खमासमणो' से 'मे मिउग्गह' तक के पाठ का अर्थ है-मैं पाप से मुक्त होकर आपको वन्दन करना चाहता है। अतः आप परिमित-अवग्रह यानी स्थान दीजिए। यह पाठ अवग्रह की याचना की क्रिया का सूचक है। प्रस्तुत पाठ में "अणुजाणह" इस पद तक एक बार अपने शरीर को अर्ध अवनत करना होता है। यह एक अवनत है और पूर्ववत् पुनः वन्दन किया जाये तब दूसरा अवनत होता है / इस प्रकार कृतिकर्म में दो नमस्कार होते हैं / दीक्षा ग्रहण करते समय या जन्म ग्रहण करते समय बालक की ऐसी मुद्रा होती है-वह दोनों हाथ सिर पर रख हुआ होता है / उसे यथाजात कहते हैं / वन्दन करते समय भी यथाजात मुद्रा होनी चाहिये। अवग्रह में प्रवेश करने की अनुज्ञा प्राप्त होने पर उभड़क आसन से बैठकर दोनों हाथ गुरु की दिशा में लम्बे कर के दोनों हाथों से गुरु के चरणों का स्पर्श करे। 'अहोकायं" इस पाठ में "" अक्षर मन्द स्वर में कहे। वहाँ से हाथ लेकर पुनः अपने मस्तिष्क के मध्यभाग को स्पर्श करता हुप्रा "हो" अक्षर का उच्च स्वर से उच्चारण करना। इस प्रकार "अहो" शब्द के उच्चारण करने में एक पावर्त हुग्रा / उसी प्रकार--"काय" शब्दोच्चार में भी एक आवर्त करना / उसी तरह "कायसंफास" में काय के उच्चारण में एक आवर्तन करना / इस प्रकार ये तीन आवर्तन हुए। उस के पश्चात् “जत्ता भे" में "ज' अक्षर का मन्दोच्चार कर गुरु के चरण को कर से स्पर्श करना चाहिये। और "ता" का मध्यम उच्चारण करते समय गुरुचरण से दोनों हाथ हटाकर—'अधर" में रखना चाहिये / और 'भे" अक्षर उच्च स्वर से बोलते हुए मस्तिष्क के मध्यभाग को हाथ से स्पर्श करना चाहिये। यह एक प्रावर्त्त हुआ / इसी प्रकार "ज" "व" "णि' इन तीन अक्षरों का उच्चारण करते समय और "जं" "च" "भे" इन तीन अक्षरों को बोलते हुये तीसरा पावर्तन करना / इस प्रकार एक वन्दन करने में सभी प्रावतं मिलकर छह प्रावतं होते हैं। द्वितीय बार वन्दन में भी छह प्रावत होते हैं / इस तरह कृतिकर्म के बारह प्रावत होते हैं। अवग्रह में प्रवेश करने के पश्चात् क्षामणा करते समय शिष्य और प्राचार्य दोनों के मिलकर दो शिरोनमन होते हैं और इसी प्रकार दूसरी वन्दना के प्रसंग पर दो शिरोनमन होते हैं। इस तरह चार शिरोनमन हुये / शिष्य जब वन्दना करता है तब मन, वचन और काया को संयम में रखना चाहिये / ये तीन गुप्ति हैं। प्रथम बंदन के समय अवग्रह-याचना कर प्रवेश करना और इसी प्रकार द्वितीय वन्दन के समय भी। इसी तरह . ये दो प्रवेश होते हैं। आवश्यकीय कर के अवग्रह से प्रथम वन्दन करने के पश्चात् बाहर जाना यह निष्क्रमण है। यह एक ही है। दूसरे वन्दन में बाहर न जाकर गुरु के चरणारविन्दों में रहकर के ही सूत्र समाप्ति करनी होती है। ये वन्दन के पच्चीस आवश्यक हैं।१५८ इस तरह प्रस्तुत ममवाय में भी पूर्व समवायों की तरह ज्ञानवर्धक सामग्री का सुन्दर संकलन है। 157. आवश्यक नियुक्ति गाथा-..-१२०२ 158. स्थानांग-समवायांग, पृ. 810 से ८१२—पं. दलसुख मालवणिया [ 41] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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