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________________ बारहवां समवाय : एक अनुशीलन बारहवें समवाय में बारह भिक्षु प्रतिमाएँ, बारह संभोग, कृतिकर्म के बारह प्रावर्त्त, विजया राजधानी का बारह लाख योजन का मायाम विष्कम्भ बताया गया है। मर्यादापुरुषोत्तम राम की उम्र बारह सौ वर्ष की बतायी है। रात्रि-मान तथा सर्वार्थसिद्ध विमान से ऊपर ईषत प्राग्भार पृथ्वी तथा नारकीय और देवों की तरह बारह पल्योपम व बारह सागर की स्थिति व बारह भव करके मोक्ष जाने वाले जीवों का उल्लेख है। प्रस्तुत समवाय में सर्वप्रथम बारह भिक्षुप्रतिमाओं का उल्लेख है। यों स्थानांगसूत्र143 में अनेक दृष्टियों से प्रतिमाओं के उल्लेख हुए हैं जैसे समाधिप्रतिमा, उपधानप्रतिमा / समाधि प्रतिमा के भी दो भेद किये हैंश्रुत समाधि, और चारित्र समाधि, उपधान प्रतिमा में भिक्षु की बारह प्रतिमाओं का उल्लेख किया है / इसी तरह विवेकप्रतिमा और व्युत्सर्गप्रतिमा का भी उल्लेख हुअा है / भद्रा, सुभद्रा, प्रतिमाओं का भी वर्णन है। महाभद्रा, सर्वतोभद्रा विविध प्रतिमानों के उल्लेख हैं। और उनके विविध भेद-प्रभेद हैं। परन्तु यहाँ पर भिक्षु की जो बारह प्रतिमाएं बतायी हैं, उन्हें विशिष्ट संहनन एवं श्रुत के धारी भिक्षु ही धारण कर सकते हैं। __ संभोग शब्द का प्रयोग यहाँ पारिभाषिक अर्थ में समान समाचारीवाले श्रमणों का साथ मिलकर के खानपान, वस्त्र-पात्र, आदान-प्रदान, दीक्षा-पर्याय के अनुसार विनय-वैयावृत्त्य करना, संभोग है। प्रस्तुत समवाय में संभोग सबम्न्धी जो दो गाथाएँ दी गयी हैं वे निशीथभाष्य 54 में प्राप्त होती हैं। उन का वहाँ पर विस्तार से विवेचन किया गया है / संभोग के बारह प्रकारों में प्रथम प्रकार है-उपधि ! वस्त्र-पात्र रूप उपधि जब तक विशुद्ध रूप से ली जाती है, वहाँ तक सांभोगिक-श्रमणों के साथ उस का सांभोगिक सम्बन्ध रह सकता है / यदि वह दोषयुक्त ग्रहण करता है और कहने पर उसका प्रायश्चित्त लेता है, तो संभोगाह है। तीन बार भूल करने तक वह संभोगाई रहता है / यदि चतुर्थ बार ग्रहण करता है तो उसे समुदाय से पृथक् करना चाहिए, भले ही उसने प्रायश्चित्त लिया हो। उसी प्रकार समुदाय से जो पृथक हो, ऐसे विसंभोगिक पार्श्वस्थ या संयति के साथ शुद्ध या अशुद्ध उपधि की एषणा करने वाले को तीन बार-उसे प्रायश्चित्त दिया जा सकता है, इससे पागे उसे विसंभोगाई गिनना / इसी प्रकार उपधि के ग्रहण की तरह उपधि के परिकर्म और परिभोग के सम्बन्ध में भी सांभोगिक और विसांभोगिक व्यवस्था समझनी चाहिए। दूसरा संभोग श्रुत है। सांभोगिक या दूसरे गच्छ से उपसंपन्न हुये श्रमण को विधिपूर्वक जो वाचना दी जाये, उसकी परिगणना शुद्ध में होती है। जो श्रुत की वाचना प्रविधिपूर्वक साम्भोगिक या उपसंपन्न या अनुपसंपन्न आदि को देता हो तो तीन बार उसे क्षमा दी जा सकती है। उस के पश्चात् यदि वह प्रायश्चित्त भी लेता है तो भी उसे विसंभोगार्ह ही समझना चाहिए। जब तक श्रमण निर्दोष भक्तपान ग्रहण करने की मर्यादा का पालन करता है, तब तक वह सांभोगिक है। उपधि : व्यवस्था है। उपधि में परिकर्म और परिभोग है तो यहाँ पर भोजन और दान है / चतुर्थ संभोग का नाम अंजलिप्रग्रह है / सांभोगिक और संविग्न असंभोगियों के साथ हाथ जोड़ कर नमस्कार करना उचित है पर पाश्वस्थ को इस प्रकार करना विहित नहीं है। इस प्रकार करने वाले को तीन बार क्षमा किया जा सकता है। दान, निकाचना, अभ्युत्थान, कृतिकर्म, वैयावृत्त्य करण, समवसरण, संनिषद्या कथाप्रबन्ध आदि अन्य संभोग शब्दों की व्याख्या विवेचन में सम्पादक ने अच्छी की है / अतः मूल सूत्र का अवलोकन करें। 153. स्थानांगसूत्र-सू. 84, 151, 237, 251, 352, आदि 154. क-निशीथभाष्य-उद्दे० 5, गाथा 49, 50 ख-~-व्यवहारभाष्य-उद्दे० 5 गाथा-४७ [40] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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