________________ में है और बौद्ध ग्रन्थों में भी इस से मिलता-जुलता वर्णन 121 है। यह वर्णन ब्रह्मचर्य की साधना करने वाले साधकों के लिए अत्यन्त उपयोगी है। भगवान् पार्श्व का शरीर नौ हाथ ऊँचा था। यह ऐतिहासिक वर्णन भी महत्त्वपूर्ण है। इस तरह नवमें समवाय में विषयों का निरूपण है। दशवां समवाय: एक विश्लेषण दशवें समवाय में श्रमण के दशधर्म, चित्तसमाधि के दश स्थान, सुमेरु पर्वत मूल में दश हजार योजन विष्कंभ वाला है, भगवान् अरिष्टनेमि, कृष्ण वासुदेव, बलदेव दश धनुष ऊँचे थे, दश ज्ञानवृद्धिकारक नक्षत्र, दश कल्पवृक्ष, नारकों व देवों की दश हजार दश पल्योपम व दश सागरोपम की स्थिति और दश भव ग्रहण कर मोक्ष जाने वाले जीवों का कथन है। प्रस्तुत समवाय में सर्वप्रथम श्रमणधर्म का उल्लेख है। केवल वेश-परिवर्तन से कोई श्रमण नहीं बनता। श्रमण बनता है सद्गुणों को धारण करने से। यहाँ शास्त्रकार ने श्रमण के वास्तविक जीवन का उल्लेख किया है। श्रमण का जीवन इन दविध सद्गुणों की सुवास से सुवासित होना चाहिए। जो साधक इन धर्मों को धारण करता है उसी का चित्त समाधि को प्राप्त हो सकता है। यहाँ पर दश प्रकार की चित्त-समाधि का उल्लेख हमा है। दशाश्रुतस्कन्ध में 22 भी समाधि स्थान का उल्लेख हुआ है / जिससे मानसिक स्वस्थता का अनुभव हो, वह समाधि है और जिससे मन में खिन्नता का अनुभव हो, वह असमाधि है। यहाँ दश समाधिस्थान बताये हैं तो दशवकालिक 23 में चार समाधिस्थान कहे गये हैं---विनयसमाधि, श्रुतसमाधि, तपःसमाधि और आचारसमाधि / यहाँ जो समाधि के दश भेद हैं उनका समावेश आचारसमाधि में हो सकता है। सूत्रकृतांगसूत्र'२४ के समाधि नामक अध्ययन में नियुक्तिकार भद्रबाह१५ ने संक्षेप में दर्शन, ज्ञान, तप और चारित्र, ये समाधि बतायी है। समाधि शब्द बौद्ध-परम्परा में भी अनेक बार व्यवहृत हुआ है / वहाँ समाधि का अर्थ "चित्त" की एकाग्रता अर्थात् चित्त को एक पालम्बन में स्थापित करना है। 12 बुद्ध के अष्टांग मार्ग में समाधि पाठवां मार्ग' 27 है। योग-परम्परा के ग्रन्थों में समाधि का विस्तार से निरूपण हुअा है। प्राचार्य पतंजलि१२८ ने तृतीय विभूति पाद में ध्यान, धारणा के साथ समाधि का उल्लेख किया है। अष्टांग योग२९ में समाधि अन्तिम है। तप, स्वाध्याय, ईश्वरप्रणिधान को क्रियायोग में लिया है। क्रियायोग से इन्द्रियों का दमन होता है / अभ्यास और वैराग्य के सतत अभ्यास से साधक समाधियोग को प्राप्त करता है। समाधिशतक प्राचार्य पूज्यपाद 130 की एक महत्त्वपूर्ण कृति है। उसमें ध्यान और समाधि के द्वारा प्रात्मतत्त्व को पहचानने के उपाय हैं। इस तरह दशवें समवाय में महत्त्वपूर्ण सामग्री का संकलन है। 121. अंगुत्तर निकाय--१४७ 122. दशाश्रुतस्कन्ध-अ. 5 123. दशवकालिक---अ.९ उद्द. 4 124. सूत्रकृतांगसूत्र-१।१० 125. क-सूत्रकृतांग नियुक्ति गाथा--१०६ ख–उत्तराध्ययन नियुक्ति गाथा 384 126. विशुद्धि मार्ग 3 / 2-3 127. विशुद्धि मार्ग---भाग-२, परिच्छेद 16 पृ. 121 128. पातंजल योगदर्शन-विभूति पाद 129. पातंजल योगदर्शन-२-२९ 130. यह ग्रन्थ हिन्दी, अंग्रेजी और मराठी भाषा में अनेक स्थलों से प्रकाशित है, इस पर अनेक वृत्तियां भी हैं। [ 37] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org