________________ तीन प्रकार के मद बताये हैं-यौवन, आरोग्य और जीवितमद। मद के पश्चात अष्टप्रवचन माताओं का वर्णन है। उत्तराध्ययन का चौबीसवां अध्ययन, प्रवचनमाता के नाम से ही विश्रुत है / भगवतीसूत्र'११ और स्थानांग१२ में भी इन्हें प्रवचनमाता कहा है। इन प्रष्ट प्रवचन माताओं में सम्पूर्ण द्वादशांगी समाविष्ट है।५१३ ये प्रवचनमाताएं चारित्ररूपा हैं / चारित्र बिना ज्ञान, दर्शन के नहीं होता / 114 द्वादशांगी में ज्ञान, दर्शन और चारित्र का ही विस्तृत वर्णन है / अतः द्वादशांगी प्रवचन माता का विराट रूप है। लौकिक जीवन में माता की गरिमा अपूर्व है / वैसे ही यह प्रष्ट प्रवचनमाताएं अध्यात्म जगत् की जगदम्बा हैं।११५ लौकिक जीवन में माता का जितना उपकार है उस से भी अनन्त गुणित उपकार प्राध्यात्मिक जीवन में इन अष्ट प्रवचनमाताओं का है। इनका सविधि पालन कर साधक कर्मों से मुक्त होता है। प्राधुनिक इतिहासकार भगवान् पार्श्व को एक ऐतिहासिक पुरुष मानते हैं / 116 भगवान् पाश्व के पाठ प्रमुख शिष्यों के नामों का भी इसमें उल्लेख हुन्मा है। इस तरह आठवें समवाय में चिन्तनप्रधान सामग्री का संकलन हया है। नौवा समवायः एक विश्लेषण नौवें समवाय में नव ब्रह्मचर्य गुप्ति, नव ब्रह्मचर्य अध्ययन, भगवान पार्श्व नव हाथ ऊँचे थे, अभिजित नक्षत्र आदि, रत्नप्रभा, वाणव्यन्तर देवों की सौधर्म सभा नौ योजन की ऊंची, दर्शनावरणीय कर्म की नौ प्रकृतियाँ नारक व देवों की नौ पल्योपम और नौ सागरोपम की स्थिति, तथा नौ भव कर के मोक्ष जाने वालों का वर्णन है। प्रस्तुत समवाय में सर्वप्रथम ब्रह्मचर्य की नौ गुप्तियों का उल्लेख है। ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए जिन उपायों और साधनों को भगवान् ने समाधि और मुक्ति कहा है, लोक भाषा में उन्हीं को बाड कहा है। बागवान अपने बाग में पौधों की रक्षा के लिए कांटों की बाड बनाता है वैसे ही साधना के क्षेत्र में ब्रह्मचर्य रूप पौधे की रक्षा के लिए वाड की नितान्त आवश्यकता है। ब्रह्मचर्य की महिमा और गरिमा अपूर्व है। 'तं बभं भगवन्त' 117 जैसे सभी श्रमणों में तीर्थकर श्रेष्ठ हैं, वैसे ही सभी व्रतों में ब्रह्मचर्य महान् है / जिस साधक ने एक ब्रह्मचर्य की पूर्ण अाराधना करली, उसने सभी व्रतों की प्राराधना कर ली / एक विद्वान् ने "बस्तीन्द्रियममसामुपशमो ब्रह्मचर्यम्" लिखा है। जननेन्द्रिय. इन्द्रियसमूह और मन की शान्ति को ब्रह्मचर्य कहा जाता है। ब्रह्म शब्द के तीन मुख्य अर्थ हैं-वीर्य, प्रात्मा और विद्या / चर्य शब्द के भी तीन अर्थ हैं—चर्या, रक्षण और रमण ! इस तरह ब्रह्मचर्य के तीन अर्थ हैं। ब्रह्मचर्य से आस्मा स्वरूप में लीन बना जाता है। प्रात्म-स्वरूप में लीन होकर ज्ञानार्जन किया जाता है। ब्रह्मचर्य से प्रात्मशुद्धि होती है। प्राचार्य पतंजलि ने लिखा है-ब्रह्मचर्यप्रतिष्ठायां आत्मलाभ:११८ ब्रह्मचर्य की पूर्ण साधना करने से अपूर्व मानसिक शक्ति और शरीरबल प्राप्त होता है / अथर्ववेद 16 के अनुसार ब्रह्मचर्य से तेज, धृति, साहस और विद्या की प्राप्ति होती है। इस तरह आत्मिक, मानसिक और शारीरिक तीनों प्रकार के विकास ब्रह्मचर्य से होते हैं / ब्रह्मचर्य के समाधिस्थान और असमाधिस्थान का सुन्दर वर्णन उत्तराध्ययन 20 111. भगवतीसूत्र-२५६।पृ-७२ 112. स्थानांगसूत्र--स्था० 8 113. उत्तराध्ययन-अ. 24 / 3 114. उत्तराध्ययन- अ. 28 / 29 115. नन्दीसूत्र स्थविरावली गाथा-१ 116. भगवान् पार्श्व-एक समीक्षात्मक अध्ययन, लेखक-श्री देवेन्द्रमुनि शास्त्री 117. प्रश्नव्याकरणसूत्र--संवरद्वार 118. पातंजल योगदर्शन-२-३८ 119. अथर्ववेद-१५॥५॥१७ 120. उत्तराध्ययन-अ.१६ [ 36 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org