________________ 114 ] [ समवायाङ्गसूत्र अष्टचत्वारिंशत्स्थानक-समवाय २७१-एगमेगस्स णं रन्नो चाउरंतचक्कवट्टिस्स अडयालीसं पट्टणसहस्सा पण्णत्ता। प्रत्येक चातुरन्त चक्रवर्ती राजा के अड़तालीस हजार पट्टण कहे गये हैं। २७२–धम्मस्स णं अरहनो अडयालीसं गणा, प्रडयालीसं गणहरा होत्था / धर्म अर्हत् के अड़तालीस गण और अड़तालीस गणधर थे। २७३–सूरमंडले ण अडयालीसं एकसविभागे जोयणस्स विक्खेभेणं पण्णते। सूर्यमण्डल एक योजन के इकसठ भागों में से अड़तालीस भाग-प्रमाण विस्तार वाला कहा गया है। // अष्टचत्वारिंशत्स्थानक समवाय समाप्त / एकोनपञ्चाशत्स्थानक-समवाय २७४-सत्त-सत्तमियाए गं भिक्खुपडिमाए एगणपन्नाए राइदिएहि छन्नउइभिक्खासएणं अहासुत्तं जाव [अहाकप्पं अहातच्चं सम्मं कारण फासित्ता पालित्ता सोहित्ता तीरित्ता किट्टित्ता प्राणाए अणुपालित्ता] आराहिया भवइ। सप्त-सप्तमिका भिक्षप्रतिमा उनचास रात्रि-दिवसों से और एक सौ छियानवे भिक्षाओं से यथासूत्र यथामार्ग से [यथाकल्प से, यथातत्त्व से, सम्यक् प्रकार काय से स्पर्श कर पालकर, शोधन कर, पार कर, कीर्तन कर प्राज्ञा से अनुपालन कर] पाराधित होती है।। विवेचन-सात-सात दिन के सात सप्ताह जिस अभिग्रह- विशेष की आराधना में लगते हैं. उसे सप्त-सप्तमिका भिक्षु प्रतिमा कहते हैं / उसकी विधि संस्कृतटीकाकार ने दो प्रकार से कही है। प्रथम प्रकार के अनुसार प्रथम सप्ताह में प्रतिदिन एक-एक भिक्षादत्ति की वृद्धि से अट्ठाईस भिक्षाएं होती हैं / इसो प्रकार द्वितीयादि सप्ताह में भी प्रतिदिन एक-एक भिक्षादत्ति की वृद्धि से सब एक सौ छियानवे भिक्षाएं होती हैं / अथवा प्रथम सप्ताह के सातों दिनों में एक-एक भिक्षा दत्ति ग्रहण करते हैं / दूसरे सप्ताह के सातों दिनों में दो-दो भिक्षा दत्ति ग्रहण करते हैं / इस प्रकार प्रतिसप्ताह एक-एक भिक्षा दत्ति के बढ़ने से सातों सप्ताहों को समस्त भिक्षाएं एक सौ छियानवे (7--14-+ 21+2+3+42+49 = 196) हो जाती हैं। २७५–देवकुरु-उत्तरकुरुएसु णं मणुया एगूणपण्णास-राईदिएहि संपन्नजोवणा भवंति / देवकुरु और उत्तरकुरु में मनुष्य उनचास रात-दिनों में पूर्ण यौवन से सम्पन्न हो जाते हैं / २७६-तेइंदियाणं उक्कोसेणं एगणपण्णं राइंदिया ठिई। त्रीन्द्रिय जीवों की उत्कृष्ट स्थिति उनचास रात-दिन की कही गई है। // एकोनपंचाशत्स्थानक समवाय समाप्त // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org