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________________ सप्तचत्वारिंशत्स्थानक समवाय) [113 षट्चत्वारिंशत्स्थानक-समवाय २६७-दिदिवायस्त णं छायालोसं माउयापया पणता। बंभोए णं लिवीए छायालोसं माउयक्खरा पण्णत्ता। बारहवें दृष्टिवाद अंग के छियालीस मातृकापद कहे गये हैं। ब्राह्मी लिपि के छियालीस मातृ-अक्षर कहे गये हैं। विवेचन–सोलह स्वरों में से ऋ ऋ ल ल इन चार को छोड़ कर शेष बारह स्वर, कवर्गादि पच्चीस व्यंजन, य र ल व ये चार अन्तःस्थ, श, ष, स, ह ये चार ऊष्म वर्ण और ह ये छियालीस हो / अक्षर ब्राह्मी लिपि में होते हैं। २६८–पभंजणस्स णं वाउकुमारिदस्स छायालीसं भवणावाससयसहस्सा पण्णत्ता / वायुकुमारेन्द्र प्रभंजन के छियालीस लाख भवनावास कहे गये हैं। ॥षट्चत्वारिंशत्स्थानक समवाय समाप्त // सप्तचत्वारिंशत्स्थानक-समवाय २६९---जया णं सूरिए सब्भितरमंडलं उवसंकमित्ता णं चारं चरइ तया णं इहगयस्स मणुस्सस्स सत्तचत्तालोसं जोयणसहस्सेहिं दोहि य तेवढहि जोयणसहि एक्कवीसाए य सट्ठिभागेहि जोयणस्स सूरिए चक्खुफासं हव्वमागच्छइ / जब सूर्य सबसे भीतरी मण्डल में प्राकर संचार करता है, तब इस भरतक्षेत्रगत मनुष्य को सैंतालीस हजार दो सो तिरेसठ योजन और एक योजन के साठ भागों में इक्कीस भाग की दूरी से सूर्य दृष्टिगोचर होता है। २७०-थेरे णं अग्गभूई सत्तचत्तालोसं वासाई अगारमझे वसित्ता मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए। अग्निभूति स्थविर संतालीस वर्ष गृहवास में रह कर मुडित हो अगार से अनगारिता में प्रवजित हुए। // सप्तचत्वारिंशत्स्थानक समवाय समाप्त // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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