________________ गये, यह चतुर्थ भव। वहाँ से देवानन्दा के गर्भ में आये, यह पांचवां भव / और वहां से त्रिशला क्षत्रियाणी की कुक्षि में लाये गये, यह छठा भव ! इस प्रकार परिगणना करने से पोट्ठिल का छठा भव घटित हो सकता है। समवायांगसूत्र में आये तीर्थंकरों की माताओं के नामों से दिगम्बर परम्परा में उनके नाम कुछ पृथक् रूप से लिखे हैं, वे इस प्रकार हैं-मरुदेवी, विजयसेना, सुसेना, सिद्धार्था, मंगला, सुसीमा, पृथ्वीसेना, लक्ष्मणा, जयरामा, (रामा) सुनन्दा, नन्दा (विष्णुश्री) जायावती (पाटला) जयश्यामा (शर्मा) शर्मा (रेवती) सुप्रभा (सुव्रता) ऐरा, श्रीकान्ता (श्रीमती) मित्रसेना, प्रजावती, (रक्षिता) सोमा (पद्मावती) वपिल्ला (वप्रा) शिवादेवी, वामादेवी, प्रियकारिणी त्रिशला / आवश्यक निर्यक्ति५४ में भी उन के नाम प्राप्त हैं। आगामी उत्सर्पिणी के तीर्थंकरों के नाम जो समवायांग में आये हैं, वही नाम प्रवचनसार में ज्यों के त्यों मिलते हैं। किन्तु लोकप्रकाश९३५ में जो नाम आये हैं, वे क्रम की दष्टि से पृथक हैं। जिनप्रभसूरि कृत 'प्राकृत दिवाली कल्प' में उल्लिखित नामों और उनके क्रम में अन्तर है। दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में आगामी चौबीसी के नाम इस प्रकार प्राप्त होते हैं(१) श्री महापद्म (2) सुरदेव (3) सुपाव (4) स्वयंप्रभु (5) सर्वात्मभू (6) श्रीदेव (7) कुलपुत्रदेव (8) उदंकदेव (9) प्रोष्ठिलदेव (10) जयकीति (11) मुनिसुव्रत (12) अरह (13) निष्पाप (14) निष्कषाय (15) विपुल (16) निर्मल (17) चित्रगुप्त (18) समाधिमुक्त (19) स्वयंभू (20) अनिवृत्त (21) जयनाथ (22) श्रीविमल (23) देवपाल (24) अनन्तवीर्य दिगम्बर ग्रन्थों में अतीत चौबीसी के नाम भी मिलते हैं।२६ प्रस्तुत समवायांग में कुलकरों का उल्लेख हुआ है / स्थानांग सूत्र में अतीत उत्सपिणी के दश कुलकरों के नाम आये हैं तो समवायांग में सात नाम हैं और नामों में भेद भी है। कुलकर उस युग के व्यवस्थापक हैं, जब मानव पारिवारिक, सामाजिक, राजशासन और आर्थिक बन्धनों से पूर्णतया मुक्त था। न उसे खाने की चिन्ता थी, न पहनने की ही। वक्षों से ही उन्हें मनोवाञ्छित वस्तुएं उपलब्ध हो जाती थी। वे स्वतन्त्र जीवन जीने वाले थे। स्वभाव की दृष्टि से अत्यन्त अल्पकषायी। उस युग में जंगलों में हाथी, घोड़े, गाय, बैल, पशु थे, पर उन पशुओं का वे उपयोग नहीं करते थे। आर्थिक दृष्टि से न कोई श्रेष्ठी था, न कोई अनुचर ही। प्राज की भाँति रोगों का त्रास नहीं था। जीवन भर वे वासनाओं से मुक्त रहते थे। जीवन की सान्ध्यवेला में वे भाई-बहन मिटकर पति-पत्नी के रूप में हो जाते थे। और एक पुरुष और स्त्री युगल के रूप में सन्तान को जन्म देते थे। उनका वे 49 दिन तक पालन-पोषण करते और मरण-शरण हो जाते थे। उनकी मृत्यु भी उबासी और छौंक आते ही बिना कष्ट के हो जाती। इस तरह योगलिक काल का जीवन था। तीसरे आरे के अन्त 223. उत्तरपुराण व हरिवंश पुराण देखिये 224. आवश्यक नियुक्ति-गाथा 385, 386 225. लोकप्रकाश सर्ग-३८, मलोक 296 226. जैन सिद्धान्त संग्रह, पृ. 19 [ 56 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org