________________ रूप "पहाराइआ" "पाराइआ" हो सकता है। संभव है कि पकार बहुल होने के कारण या पकार से प्रारम्भ होने के कारण इस का नाम "पकारादिका" पड़ा हो। ग्यारहवीं लिपि का नाम "निह्नविका" है। निह्नव शब्द का प्रयोग जैन परम्परा में "छिपाने" के अर्थ में बहुत विश्रुत रहा है। जो लिपि गुप्त हो, या सांकेतिक हो, वह निह्रविका हो सकती है। वर्तमान में संकेत लिपि का प्रचलन अतिशीघ्र लिपि के रूप में है। प्राचीन युग में इसी तरह कोई सांकेतिक लिपि रही होगी, जो निह्रविका के नाम से विश्रुत हो। बारहवीं लिपि का नाम अकलिपि है। अंकों से निर्मित लिपि अंकलिपि होनी चाहिये। आचार्य कुमुदेन्दु ने "भू-वलय" ग्रन्थ का उट्टकन इसी लिपि में किया है। यह ग्रन्थ यलप्पा शास्त्री के पास था, जो विश्वेश्वरम् के रहने वाले थे। वह मैंने देहली में सन् 1954 में देखा था। उस में विविध-विषयों का संकलन-आकलन हुआ है, और अनेक भाषाओं का प्रयोग भी! यलप्पा शास्त्री के कहने के अनुसार उस में एक करोड़ श्लोक हैं और उसे भारत के राष्ट्रपति राजेन्द्र बाबू ने "विश्व का महान् पाश्चर्य" कहा है। तेरहवीं लिपि "गणितलिपि" है। गणितशास्त्र सम्बन्धी संकेतों के आधार पर आधत होने से लिपि "मणितलिपि" के रूप में विश्रुत रही हो। चौदहवीं लिपि का नाम "गान्धर्व" लिपि है। यह लिपि गन्धर्व जाति की एक विशिष्ट लिपि थी। पन्द्रहवीं लिपि का नाम "भूतलिपि" है। भूतान देश में प्रचलित होने के कारण से यह भूतलिपि कहलाती हो। भूतान को ही वर्तमान में भूटान कहते हैं। अथवा भोट या भोटिया, तथा भूत जाति में प्रचलित लिपि रही हो। संभव है कि पैशाचीभाषा की लिपि भूतलिपि कहलाती हो। भूत और पिशाच, ये दोनों शब्द एकार्थक से रहे हैं। इसलिये पैशाचीलिपि को भूतलिपि कहा गया हो। जो लिपि बहुत ही सुन्दर व आकर्षक रही होगी, वह सोलहवीं लिपि “आदर्श लिपि" के रूप में उस समय प्रसिद्ध रही होगी। यह लिपि कहाँ पर प्रचलित थी, यह अभी तक लिपिविशेषज्ञ निर्णय नहीं कर सके हैं। सत्तरहवीं लिपि का नाम "माहेश्वरी" लिपि है। माहेश्वरी वैश्यवर्ण में एक जाति है। संभव है कि इस जाति की विशिष्ट लिपि प्राचीनकाल में प्रचलित रही हो, और उसे माहेश्वरी लिपि कहा जाता हो। अठारहवीं लिपि ब्राह्मीलिपि है। यह लिपि द्राविड़ों की रही होगी। नाम से स्पष्ट है कि पुलिंदलिपि का सम्बन्ध आदिवासी से रहा हो। मगर अभी तक यह सब अनुमान ही है। इनका सही स्वरूप निश्चित करने के लिए अधिक अन्वेषण अपेक्षित है। बौद्ध ग्रन्थ "ललितविस्तरा" में चौंसठ लिपियों के नाम आये हैं। उन नामों के साथ समवायांग में प्राये हये लिपियों के वर्णन की तुलना की जा सकती है। सौंवें समवाय के बाद क्रमशः 150-200-250-300---350-400-450-500 यावत 1000 से 2000 से 10000 से एक लाख, उस से 8 लाख और करोड़ की संख्या वाले विभिन्न विषयों का इन समवायों में संकलन किया गया है। यहाँ पर हम कुछ प्रमुख विषयों के सम्बन्ध में ही चिन्तन प्रस्तुत कर रहे हैं। भगवान महावीर के तीर्थंकर भव से पूर्व छठे पोट्टिल के भव का वर्णन है। आवश्यक नियुक्ति में प्रभु महावीर के सत्ताईस भवों का सुविस्तृत वर्णन है। वहाँ पर नन्दन के जीव ने पोट्ठिल के पास दीक्षा ग्रहण की। और नन्दन के पहले के भवों में पोटिठल का उल्लेख नहीं है। और न यह उल्लेख अावश्यकचूणि, आवश्यक हरिभद्रीयावत्ति, आवश्यक मलयगिरि बत्ति और महावीरचरियं मादि में कहीं आया है। प्राचार्य अभयदेव ने प्रस्तुत प्रागम की वृत्ति में यह स्पष्ट किया है कि पोठिल नामक राजकुमार का एक भव, वहाँ से देव हुए, द्वितीय भव / वहाँ से च्युत होकर क्षत्रानगरी में नन्दन नामक राजपुत्र हुए, यह तृतीय भव / वहाँ से देवलोक 222. आवश्यक नियुक्ति-गाथा 448 [ 55 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org