________________ समवाय में मेरु पर्वत भूमि से 99 हजार योजन ऊँचा है। १००वें समवाय में भगवान पार्श्व की और गणधर सुधर्मा की आयु सौ वर्ष की थी, यह निरूपण है। उपर्युक्त पैतीसवें समवाय से १००वें समवाय तक विपुल सामग्री का संकलन हुआ है। उसमें से कितनी ही सामग्री पौराणिक विषयों से सम्बन्धित है। भूगोल और खगोल, स्वर्ग और नरक आदि विषयों पर अनेक दृष्टियों से विचार हुआ है। आधुनिक विज्ञान की पहँच जैन भौगोलिक विराट क्षेत्रों तक अभी तक नहीं हो पायी है। ज्ञात' से अज्ञात अधिक है। अन्वेषणा करने पर अनेक अज्ञात गम्भीर रहस्यों का परिज्ञान हो सकता है। इन समवायों में अनेक रहस्य आधुनिक अन्वेषकों के लिये उद्घाटित हये हैं। उन रहस्यों को आधुनिक परिपेक्ष्य में खोजना अन्वेषकों का कार्य है। ऐतिहासिक दृष्टि से इसमें चौबीस तीर्थकर, चक्रवर्ती, वासुदेव, बलदेव, गणधर, तीर्थंकरों के श्रमण, श्रमणी, श्रावक, श्राविका आदि के सम्बन्ध में भी विपुल सामग्री है। तीर्थंकर जैन शासन के निर्माता हैं। अध्यात्मिक-जगत् के आचारसंहिता के पुरस्कर्ता हैं। उन का जीवन साधकों के लिये सतत मार्गदर्शक रहा है। तीर्थंकरों के विराट् जीवनचरितों का मूल बीज प्रस्तुत समवायांग में है। ये ही बीज अन्य चरित ग्रन्थों में विराट रूप ले सके हैं। तीर्थंकरों के प्राग ऐतिहासिक और ऐतिहासिक विषयों पर विपुल सामग्री है। और अन्य विज्ञों के अभिमतों के आलोक में भी उस पर चिन्तन किया जा सकता है। पर प्रस्तावना की पृष्ठमर्यादा को ध्यान में रखते हुये मैं जिज्ञासु पाठकों को इतना सूचन अवश्य करूगा कि वे मेरे द्वारा लिखित, “भगवान ऋषभदेव : एक परिशीलन', 'भगवान् पाश्वः एक समीक्षात्मक अध्ययन', 'भगवान् अरिष्टनेमि' 'कर्मयोगी श्री कृष्ण: एक अनुशीलन' और 'भगवान महावीरः एक अनुशीलन' ग्रन्थों२२१ का अवलोकन करें। मैंने तीर्थकरों के सम्बन्ध में अनेक तथ्य इन ग्रन्थों में दिये हैं / इसी तरह भगवान महावीर के गणधरों के सम्बन्ध में भी "महावीर अनुशीलन" ग्रन्थ में चिन्तन किया है। लिपि-विचार ४६वें समवाय में ब्राह्मीलिपि के उपयोग में आने वाले अक्षरों की संख्या 46 बतायी है। आचार्य अभयदेव ने प्रस्तुत प्रागम की वृत्ति में यह स्पष्ट किया है कि 46 अक्षर "अकार" से लेकर क्ष सहित हकार तक होने चाहिये। उन्होंने ऋ ऋ ल ल नहीं गिने हैं। शेष अक्षर लिये हैं। अठारहवें समवाय में लिपियों के सम्बन्ध में ब्राह्मीलिपि के नाम बताये हैं। प्राचार्य अभयदेव ने इन लिपियों के सम्बन्ध में यह स्पष्ट लिखा है कि उन्हें इन लिपियों के सम्बन्ध में किसी भी प्रकार का विवरण प्राप्त नहीं हुआ है इसलिये वे उस का विवरण नहीं दे सके हैं। आधुनिक अन्वेषणा के पश्चात् इस सम्बन्ध में यह कहा जा सकता है कि अशोक के लिपि प्रयुक्त हयी है, वह ब्राह्मी लिपि है / यवनों की लिपि यावनीलिपि है, जो आज अर्बी और फारसी आदि के रूप में विश्रुत है। खरोष्टी लिपि गन्धार देश में प्रचलित थी। यह लिपि दाहिनी ओर से प्रारम्भ होकर बाई ओर लिखी जाती थी। उत्तर-पश्चिम सीमान्त प्रदेश में अशोक के जो दो शिलालेख प्राप्त हये हैं, उन में प्रस्तुत लिपि का प्रयोग हुआ है। खर और ओष्ट इन दो शब्दों से खरोष्ट बना है। खर गधे को कहते हैं। सम्भव है कि प्रस्तुत लिपि का मोड़ गधे के होठ की तरह हो / इसलिये इस का नाम खरोष्ठी, खरोष्ठिका अथवा खरोष्ट्रिका पड़ा हो / पांचवी लिपि का नाम "खर-श्राविता" है। खर के स्वर की तरह जिस लिपि का उच्चारण कर्णकटु हो, जिस के कारण संभवतः उस का नाम "खरश्राविता" पड़ा हो। छुट्टी लिपि का नाम "पकारादिका" है। जिस का प्राकृत 221. लेखक-श्री देवेन्द्रमुनि शास्त्री, श्री तारकगुरु जैनग्रन्थालय, शास्त्री सर्कल, उदयपुर (राजस्थान) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org