________________ समवायांग के तृतीय समवाय का सोलहवा सूत्र है---'प्रसुरकुमाराणं देवाणं.......' इसी तरह भगवती२७६ में भी कुछ असुरकुमार देवों की स्थिति तीन पल्योपम की कही है। - समवायांग सूत्र के तृतीय समवाय का सत्तरहवाँ सूत्र है-'प्रसंखिज्जवासाउय""".' तो भगवती२८० में भी असंख्य वर्ष की आयु वाले संज्ञी तिर्यञ्च पंचेन्द्रियों की उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्योपम की बतायी है। समवायांग सूत्र के तृतीय समवाय का अठारहवां सूत्र-'असंखिज्जवासाउय.......है तो भगवती२५१ में भी असंख्य वर्ष की आय वाले गर्भज मनुष्यों की उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्योपम को बतायी है। समवायांग के तृतीय समवाय का उन्नीसवां सूत्र है-'सोहम्मीसाणेसु.......' तो भगवती२८२ में भी सौधर्म और ईशान कल्प के कुछ देवों की स्थिति यही कही है। समवायांग के तृतीय समवाय का बीसवाँ सूत्र –'सणंकुमार-माहिदेसु......' है तो भगवती२८३ में भी सनत्कुमार और माहेन्द्र कल्प के कुछ देवों की स्थिति तीन सागरोपम की कही है। समवायांग के तृतीय समवाय का इकवीसवाँ सूत्र है-'जे देवा आभंकरं पभकर' है तो भगवती२८४ में आभंकर प्रभंकर देवों की उत्कृष्ट स्थिति तीन सागरोपम की बतायी है। समवायांग के तृतीय समवाय का चौवीसवां सूत्र-'संतेगइया भवसिद्धिया.......' है तो भगवती२८५ में भी कुछ जीव तीन भव कर मुक्त होंगे, ऐसा वर्णन है। __समवायांग के चतुर्थ समवाय का दशवां सूत्र-'इमीसे णं रयणप्पहाए......" है तो भगवती२८६ में भी रत्नप्रभा पृथ्वी के कुछ नैरयिकों की स्थिति चार पल्योपम की बतायी है। समवायांग के चतुर्थ समवाय का ग्यारहवां सूत्र-'तच्चाए णं पुढवए........' है तो भगवती२८७ में भी बालुका पृथ्वी के कुछ नैरयिकों की स्थिति चार सागरोपम की कही है। समवायांग के चतुर्थ समवाय का बारहवाँ सूत्र--'असुरकुमाराणं देवाण........' है तो भगवती 288 में भी असुरकुमार देवों की चार पल्योपम की स्थिति प्रतिपादित है। ___ समवायांग सूत्र के चतुर्थ समवाय का तेरहवां सूत्र-'सोहम्मीसाणेसु...........' है तो भगवती२८ में भी सौधर्म ईशान कल्प के कुछ देवों की स्थिति चार पल्योपम की कही है। 279. भगवती-श. 1 उ. 1 280. भगवती-श. 1 उ. 1 281. भगवती-श. 1 उ.१ 282. भगवती-श. 1 उ.१ 283. भगवती-श. 1 उ. 1 284. भगवती-श. 1 उ. 1 285. भगवती-श. 6, 12 उ. 10,2 286. भगवती-श. 1 उ. 1 287. भगवती-श.१ उ. 1 288. भगवती-श. 1 उ. 1 289. भगवती-श.१ उ. 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org