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________________ विविधविषयनिरूपण] [221 99 / एवं सेसाण वि पाउगाणि जाव वेमाणिय ति। भगवन् ! नारक जीव जातिनामनिधत्तायुष्क कर्म का कितने आकर्षों से बन्ध करते हैं। गौतम ! स्यात् (कदाचित्) एक आकर्ष से, स्यात् दो अाकर्षों से, स्यात् तीन आकर्षों से, स्यातू चार पाकर्षों से, स्यात् पाँच आकर्षों से, स्यात् छह आकर्षों से, स्यात् सात प्राकर्षों से और स्यात् पाठ आकर्षों से जातिनामनिधत्तायुष्क कर्म का बन्ध करते हैं। किन्तु नौ आकर्षों से बन्ध नहीं करते हैं। इसी प्रकार शेष आयुष्क कर्मों का बन्ध जानना चाहिए। इसी प्रकार असुरकुमारों से लेकर वैमानिक कल्प तक सभी दंडकों में आयुबन्ध के अाकर्ष जानना चाहिए। विवेचन सामान्यतया आकर्ष का अर्थ है-कर्मपुद्गलों का ग्रहण / किन्तु यहाँ जीव के आगामी भव की आयु के बंधने के अवसरों को आकर्षकाल कहा है / यह प्राकर्ष-जीव के अध्यवसायों को तीव्रता और मन्दता पर निर्भर हैं / तीव्र अध्यवसाय हों तो एक ही बार में जीव आयु के दलिकों को ग्रहण कर लेता है / अध्यवसाय मंद हों तो दो आकर्षों से, मन्दतर हों तो तीन से और मन्दतम अध्यवसाय हों तो चार-पांच-छह-सात या आठ आकर्षों से प्रायू का बन्ध होता है। इससे अधिक अाकर्ष कदापि नहीं होते। ६१७--कइविहे णं भत्ते ! संघयणे पन्नत्ते ? गोयमा ! छब्बिहे संघयणे पन्नत्ते / तं जहावइरोसभनारायसंघयणे 1, रिसभनारायसंघयणे 2, नारायसंघयणे 3, अद्धनारायसंघयणे 4, कोलिया. संघयणे 5, छेवट्टसंघयणे 6 / भगवन् ! संहनन कितने प्रकार का कहा गया है ? गौतम ! संहनन छह प्रकार का कहा गया है / जैसे—१. वज्रर्षभ नाराच संहनन, 2. ऋषभनाराच संहनन, 3. नाराच संहनन, 4. अर्ध नाराच संहनन, 5. कीलिका संहनन और 6. सेवार्त संहनन / विवेचन--शरीर के भीतर हड्डियों के बन्धन विशेष को संहनन कहते हैं। उसके छह भेद प्रस्तुत सूत्र में बताये गये हैं / वज्र का अर्थ कीलिका है, ऋषभ का अर्थ पट्ट है और मर्कट स्थानीय दोनों पावों की हड्डी को नाराच कहते हैं। जिस शरीर की दोनों पार्ववर्ती हड्डियाँ पट्ट से बंधी हों और बीच में कोली लगी हुई हो, उसे वज्र ऋषभनाराच संहनन कहते हैं। जिस शरीर की हड्डियों में कीली न लगी हों, किन्तु दोनों पावों की हड्डियाँ पट्टे से बन्धी हों, उसे ऋषभनाराच संहनन कहते हैं / जिस शरीर की हड्डियों पर पट्ट भी न हो उसे नाराच संहनन कहते हैं। जिस शरीर की हड्डियाँ एक ओर ही मर्कट बन्ध से युक्त हों, दूसरी ओर की नहीं हों, उसे अर्धनाराच संहनन कहते हैं। जिस शरीर की हड्डियों में केवल कीली लगी हो उसे कीलिका संहनन कहते हैं। जिस शरीर की हड्डियाँ परस्पर मिली और चर्म से लिपटी हुई हों उसे सेवात संहनन कहते हैं / देवों और नारकी जीवों के शरीरों में हड्डियाँ नहीं होती हैं, अतः उनके संहनन का अभाव बताया गया है। मनुष्य और तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीव छहों संहनन वाले होते हैं / एकेन्द्रियादि शेष तिर्यंचों के संहननों का वर्णन आगे के सूत्र में किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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