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________________ 220] [समवायाङ्गसूत्र ६१५-इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइया केवइयं कालं विरहिया उववाएणं पन्नत्ता ? एवं उववायदंडगो भाणियन्वो उव्वट्टणादंडओ य / - भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथिवी के नारक कितने विरह-काल के बाद उपपात वाले कहे गये हैं ? उक्त प्रश्न के उत्तर में यहाँ पर (प्रज्ञापनासूत्रोक्त) उपपात-दंडक कहना चाहिए / इसी प्रकार उद्वर्तना-दंडक भी कहना चाहिए। विवेचन--सूत्र में जिस उपपात-दण्डक के जानने की सूचना की है, वह इस प्रकार हैरत्नप्रभा पृथिवी के नारकी जीवों का उपपात-विरहकाल जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से चौबीस मुहूर्त है / शर्करा पृथिवी के नारकों का उत्कृष्ट उपपात-विरहकाल सात रात-दिन है। वालुका पृथिवी में नारकों का उत्कृष्ट विरहकाल अर्ध मास (15 रात-दिन) है। पंकप्रभा पृथिवी में नारकों का उत्कृष्ट विरहकाल एक मास है। धूमप्रभा पृथिवी में नारकों का उत्कृष्ट विरहकाल दो मास है। तमःप्रभा पृथिवी में नारकों का उत्कृष्ट विरहकाल चार मास है। महातमःप्रभा पृथिवी में नारकों का उत्कृष्ट विरहकाल छह मास है। असुर कुमारों का उत्कृष्ट उपपात-विरहकाल चौबीस मुहर्त है। इसी प्रकार शेष सभी भवनवासियों का जानना चाहिए / पृथिवीकायिक आदि पांचों एकेन्द्रिय जीवों का विरहकाल नहीं है, क्योंकि वे सदा ही उत्पन्न होते रहते हैं। द्वीन्द्रिय जीवों का विरहकाल अन्तमुहूर्त है / इसी प्रकार त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, सम्मूच्छिम पंचेन्द्रिय तिर्यंचों का विरहकाल जानना चाहिए। गर्भोपक्रान्तिक मनुष्यों का विरहकाल बारह मुहूर्त है। सम्मूच्छिम मनुष्यों का विरहकाल चौबीस मुहूर्त है। व्यन्तर, ज्योतिष्क और सौधर्म-ईशानकल्प के देवों का दिरहकाल भी चौबीस-चौबीस मुहूर्त है। सनत्कुमार देवों का विरहकाल नौ दिन और बीस महत्तं है। माहेन्द्र देवों का विरहकाल बारह दिन और दश मुहूर्त है। ब्रह्मलोक के देवों का विरहकाल साढ़े बाईस दिन-रात है। लान्तक देवों का विरहकाल पैंतालीस रात-दिन है / महाशुक्र देवों का विरहकाल अस्सी दिन है। सहस्रार देवों का विरहकाल एक सौ दिन है। प्रानत देवों का विरहकाल संख्यात मास है। इसी प्रकार प्राणत देवों का भी जानना चाहिए। प्रारण और अच्युत देवों का विरहकाल संख्यात वर्ष है / अधस्तन ग्रेवेयक त्रिक के देवों का विरहकाल संख्यात शत वर्ष है। मध्यम ग्रैवेयक त्रिक के देवों का विरहकाल त सहस्र वर्ष है। उपरितन ग्रंवेयक त्रिक के देवों का विरहकाल संख्यात शतसहस्र वर्ष है। विजयादि चार अनुत्तर विमानों के देवों का विरहकाल असंख्यात वर्ष है और सर्वार्थ सिद्ध देवों का विरहकाल पल्यापम का असख्यातवा भाग प्रमाण है। यह सब उपपात के विरह का काल है। विवक्षित नरक, स्वर्ग आदि से निकलने को अर्थात् उस पर्याय को छोड़कर अन्य पर्याय में जन्म लेने को उद्वर्तना कहते हैं। जिस गति का जितना विरहकाल बताया गया है, उसका उतना ही उद्वर्तनाकाल जानना चाहिए। ६१६–नेरइया णं भंते ! जातिनामनिहत्ताउगं कति आगरिसेहि पगरंति ? गोयमा! सिघ एक्केणं, सिय दोहि, सिय तोहि, सिय चहि, सिय पंचहि, सिय छहि, सिय सहि, सिय अहिं [आगरिसेहि पगरंति] नो चेव णं नहिं / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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