SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 340
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विविधविषयनिरूपण] [219 सामान्य कथन है। विशेष कथन को अपेक्षा प्रागम में नरक की सातों ही पृथिवियों में नारकों का विरहकाल भिन्न-भिन्न बताया गया है / जैसा कि टोका में उद्धृत निम्न गाथा से स्पष्ट है-- चउवीसई मुहुत्ता सत्त अहोरत्त तह य पन्नरसा / मासो य दो य चउरो छम्मासा विरहकालो त्ति / / 1 // अर्थात्-उत्कृष्ट विरहकाल पहिली पृथिवी में चौबीस मुहूर्त, दूसरी में सात अहोरात्र, तीसरी में पन्द्रह ग्रहोरात्र, चौथी में एक मास, पांचवीं में दो मास, छठी में चार मा प्रथिवी में छह मास का होता है। इसी प्रकार सभी भवनवासियों का उत्कृष्ट विरहकाल चौबीस मुहूर्त का है। पृथिवीकायिक आदि पांचों स्थावरकायिक जीवों की उत्पत्ति निरन्तर होती रहती है, अत: उनकी उत्पत्ति का विरहकाल नहीं है। द्वीन्द्रिय जीवों का विरहकाल अन्तर्मुहूर्त है / इसी प्रकार त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और सम्मूच्छिम पंचेन्द्रिय तिर्यचों का भी विरहकाल अन्तर्मुहूर्त है। गर्भज तिर्यंचों और मनुष्यों का विरहकाल बारह मुहूर्त है / सम्मूच्छिम मनुष्यों का विरहकाल चौबीस मुहूर्त है / व्यन्तर, ज्योतिष्क और सोधर्म-ईशान कल्प के देवों का विरहकाल भो चौबीस मुहूर्त है / सनत्कुमार कल्प में देवों का विरहकाल नौ दिन और बीस मुहूर्त है। माहेन्द्रकल्प में देवों का विरहकाल बारह दिन अौर दश मुहूर्त है। ब्रह्मलोक में देवों का विरहकाल साढ़े बाईस रात-दिन है। लान्तक कल्प में देवों का विरहकाल पंतालीस दिन-रात अर्थात डेढ़ मास है। महाशुक्रकल्प में देवो का विरहकाल अस्सी दिन (दो मास बीस दिन) है / सहस्रारकल्प में देवों का विरहकाल सौ दिन (तीन माह दश दिन) है / अानत-प्राणत कल्प में देवों का विरहकाल संख्यात मास है। प्रारण-अच्युत कल्प में देवों का विरहकाल संख्यात वर्ष है। अधस्तन तीनों ग्रैवेयकों में विरहकाल संख्यात शत वर्ष है। मध्यम तीनों ग्रेवेयकों में विरहकाल संख्यात सहस्र वर्ष है। उपरिम तीनों अवेयकों में विरहकाल संख्यात शत-महस्र (लाख) वर्ष है। विजयादि चार अनत्तर विमानों में विरहकाल असंख्या मथिसिद्ध ग्रनत्तर विमान में विरहकाल पल्योपम के असंख्यातवें भाग-प्रमाण है। ६१४-सिद्धगई णं भंते ! केवइयं कालं विरहिया सिझणयाए पन्नत्ता? गोयमा ! जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं छम्मासे / एवं सिद्धिवज्जा उब्वट्टणा / भगवन् ! सिद्धगति कितने काल तक विरहित रहती है ? अर्थात् कितने समय तक कोई भी जीव सिद्ध नहीं होता? गौतम ! जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से छह मास सिद्धि प्राप्त करने वालों से विरहित रहती है। अर्थात् सिद्धगति का विरह काल छह मास है। इसी प्रकार सिद्धगति को छोड़कर शेष सब जीवों को उद्वर्तना (मरण) का विरह भी जानना चाहिए। विवेचन-विवक्षित गति को छोड़कर उससे बाहर निकलने को उद्वर्तना कहते हैं / सिद्वगति को प्राप्त जीव वहाँ से कभी भी नहीं निकलते हैं, अतः उनको उद्वर्तना का निषेध किया गया है / शेष चारों ही गतियों से जीव अपनी-अपनी आयु पूर्ण कर निकलते हैं और नवीन पर्याय को धारण करते हैं, अतः उन सबकी उद्वर्तना आगम में कही गई है / उसे पागम से जानना चाहिए / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy