SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 339
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 218] [समवायाङ्गसूत्र गति के योग्य जातिनाम कर्म का बन्ध करता है, गतिनाम कर्म का भी बन्ध करता है, इसी प्रकार उसके योग्य स्थिति, प्रदेश, अनुभाग और अवगाहना (शरीर नामकर्म) का भी बन्ध करता है / जैसे -कोई जीव इस समय देवायु का बन्ध कर रहा है तो वह इसी समय उसके साथ पंचेन्द्रिय जातिनामकर्म का भी बन्ध कर रहा है, देवगति नामकर्म का भी बन्ध कर रहा है. प्रायु की नियत कालवाली स्थिति का भी बन्ध कर रहा है, उसके नियत परिमाण वाले कर्मप्रदेशों का भी बन्ध कर रहा है, नियत रस-विपाक या तीव्र-मन्द फल देने वाले अनुभाग का भी बन्ध कर रहा है और देवगति में होने वाले वैक्रियिक अवगाहना अर्थात् शरीर का भी बन्ध कर रहा है / इन सब अपेक्षाओं से प्रायुकर्म का बन्ध छह प्रकार का कहा गया है / ६११–नेरइयाणं भंते ! कइविहे आउगबंधे पन्नत्ते ? गोयमा ! छबिहे पन्नत्ते / तं जहाजातिनाम० गइनाम० ठिइनाम० पएसनाम० अणुभागनाम० प्रोगाहणानाम० / एवं जाव वेमाणियाणं। भगवन् ! नारकों का आयुबन्ध कितने प्रकार का कहा गया है ? गौतम ! छह प्रकार का कहा गया है। जैसे-जातिनामनिधत्तायुष्क, गतिनामनिधत्तायुष्क, स्थितिनामनिधत्तायुष्क, प्रदेशनामनिधत्तायुष्क, अनुभागनामनिधत्तायुष्क और अवगाहनानामधित्तायुष्क। इसी प्रकार असुरकुमारों से लेकर वैमानिक देवों तक सभी दंडकों में छह-छह प्रकार का आयुबन्ध जानना चाहिए। ६१२–निरयगई णं भंते ! केवइयं कालं विरहिया उववाएणं पन्नता? गोयमा ! जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं बारस मुहुत्ते / भगवन् ! नरकगति में कितने विरह-(अन्तर-) काल के पश्चात् नारकों का उपपात (जन्म) कहा गया है ? _ गौतम ! जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से बारह मुहूर्त नारकों का विरहकाल कहा गया है। विवेचन-जितने समय तक विवक्षित गति में किसी भी जीव का जन्म न हो, उतने समय को विरह या अन्तरकाल कहते हैं / यदि नरक में कोई जीव उत्पन्न न हो, तो कम से कम एक समय तक नहीं उत्पन्न होगा / यह जघन्य विरहकाल है / अधिक से अधिक बारह मुहूर्त तक नरक में कोई जीव उत्पन्न नहीं होगा, यह उत्कृष्टकाल है। (बारह मुहूर्त के बाद कोई न कोई जीव नरक में उत्पन्न होता ही है।) ६१३–एवं तिरियगई मणुस्सगई देवगई। इसी प्रकार तिर्यग्गति, मनुष्यगति और देवगति का भी जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल जानना चाहिए। विवेचन--ऊपर जो उत्कृष्ट अन्तर या विरहकाल बारह मुहूर्त प्रतिपादन किया गया है, वह Jain Education International For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy