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________________ 184] [समवायाङ्गसूत्र विष्पमुक्को मोक्खसुहमणुत्तरं पत्ता / एए अन्ने य एवमाइअत्था वित्थरेणं परवेई / अन्तकृद्दशा क्या है इसमें क्या वर्णन है ? अन्तकृत्दशाओं में कर्मों का अन्त करने वाले महापुरुषों के नगर, उद्यान, चैत्य, वनखण्ड, राजा, माता-पिता, समवसरण, धर्माचार्य, धर्मकथा, इहलौकिक-पारलौकिक ऋद्धि-विशेष, भोग परित्याग, प्रव्रज्या, श्रुत-परिग्रह, तप-उपधान, अनेक प्रकार की प्रतिमाएं, क्षमा, प्रार्जव, मार्दव, सत्य, शौच, सत्तरह प्रकार का संयम, उत्तम ब्रह्मचर्य, आकिंचन्य, तप, त्याग का तथा समितियों और का वर्णन है। अप्रमाद-योग और स्वाध्याय-ध्यान योग, इन दोनों उत्तम मूक्ति-साधनों का स्वरूप, उत्तम संयम को प्राप्त करके परीषहों को सहन करने वालों को चार प्रकार के घातिकर्मों के क्षय होने पर जिस प्रकार केवलज्ञान का लाभ हुआ, जितने काल तक श्रमण-पर्याय और केवलि-पर्याय का पालन किया, जिन मुनियों ने जहाँ पादपोपगमसंन्यास किया, जो जहाँ जितने भक्तों का छेदन कर अन्तकृत मुनिवर अज्ञानान्धकार रूप रज के पुंज से विप्रमुक्त हो अनुत्तर मोक्ष-सुख को प्राप्त हुए, उनका और इसी प्रकार के अन्य अनेक अर्थों का इस अंग में विस्तार से प्ररूपण किया गया है। ५४०-अंतगडदसासु णं परित्ता वायणा, संखेज्जा अणुओगदारा, संखेज्जाओ पडिवत्तीओ संखेज्जा वेढा, संखेज्जा सिलोगा, संखेज्जाओ निज्जुत्तीओ, संखेज्जग्ओ संगहणीओ। अन्तकृत्दशा में परीत वाचनाएं हैं, संख्यात अनुयोगद्वार हैं, संख्यात प्रतिपत्तियां हैं, संख्यात वेढ और श्लोक हैं, संख्यात नियुक्तियाँ हैं और संख्यात संग्रहणियाँ हैं। ५४१-से णं अंगठ्ठयाए अट्टमे अंगे, एगे सुयक्खंधे, दस अज्झयणा, सत्त वग्गा, दस उद्देसणकाला, दस समुद्देसणकाला, संखेज्जाइं पयसहस्साई पयग्गेणं पण्णत्ताई। संखेज्जा अवखरा, अणंता गमा, अणता पज्जवा, परित्ता तसा, अणंता थावरा, सासया कडा णिबद्धा णिकाइया जिणपण्णत्ता भावा आघविज्जति, पण्णविज्जति, परूविज्जति, निदंसिज्जंति, उवदंसिज्जंति / से एवं पाया, से एवं णाया, एवं विण्णाया, एवं चरण-करणपरूवणया आघविज्जति / से तं अंतगडदसाओ८ / अंग की अपेक्षा यह आठवाँ अंग है। इसमें एक श्रुतस्कन्ध है। दश अध्ययन हैं, सात वर्ग हैं, दश उद्देशन-काल हैं, दश समुद्देशन-काल हैं, पदगणना की अपेक्षा संख्यात हजार पद हैं / संख्यात अक्षर हैं, अनन्त गम हैं, अनन्त पर्याय हैं, परीत त्रस हैं, अनन्त स्थावर हैं। ये सभी शाश्वत, अशाश्वत निबद्ध, निकाचित जिन-प्रज्ञप्त भाव इस अंग के द्वारा कहे जाते हैं, प्रज्ञापित किये जाते हैं, प्ररूपित किये जाते हैं. निशित किये जाते हैं और उपशित किये जाते हैं। इस अंग का अध्येता आत्मा ज्ञाता हो जाता है, विज्ञाता हो जाता है। इस प्रकार चरण और करण की प्ररूपणा के द्वारा वस्तु-स्वरूप का कथन, प्रज्ञापन, प्ररूपण, निदर्शन और उपदर्शन किया गया है। यह पाठवें अन्तकृत्दशा अंग का परिचय है। ५४२--से कि तं अणत्तरोववाइयदसाम्रो ? अणुत्तरोववाइयदसासु णं अणुत्तरोववाइयाणं नगराई उज्जाणाई चेइयाई वणखंडा रायाणो अम्मा-पियरो समोसरणाई धम्मायरिया धम्मकहाओ इहलोग-परलोग-इड्डिविसेसा भोगपरिच्चाया पवज्जाओ सुयपरिग्गहा तवोवहणाइं परियागो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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