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________________ द्वादशाङ्ग गणिपिटक] [183 गुणों का धारण, उनके अतिचार, स्थिति-विशेष (उपासक-पर्याय का काल-प्रमाण), प्रतिमाओं का ग्रहण, उनका पालन, उपसर्गों का सहन, या निरुपसर्ग-परिपालन, अनेक प्रकार के तप, शील, व्रत, गुण, वेरमण, प्रत्याख्यान, पौषधोपवास और अपश्चिम मारणान्तिक संलेखना जोषमणा (सेवना) से आत्मा को यथाविधि भावित कर, बहुत से भक्तों (भोजनों) को अनशन तप से छेदन कर, उत्तम श्रेष्ठ देव-विमानों में उत्पन्न होकर, जिस प्रकार वे उन उत्तम विमानों में अनुपम उत्तम सुखों का अनुभव करते हैं, उन्हें भोग कर फिर आयु का क्षय होने पर च्युत होकर (मनुष्यों में उत्पन्न होकर) और जिनमत में बोधि को प्राप्त कर तथा उत्तम संयम धारण कर तमोरज (अज्ञान-अन्धकार रूप पाप-धूलि) के समूह से विप्रमुक्त होकर जिस प्रकार अक्षय शिव-सुख को प्राप्त हो सर्व दुःखों से रहित होते हैं. इन सबका और इसी प्रकार के अन्य भी अर्थों का इस उपासकदशा में विस्तार से वर्णन किया गया है। ५३७-उवासगदसासु णं परित्ता वायणा, संखेज्जा अणुओगदारा, संखेज्जाओ पडिवत्तीनो, संखेज्जा वेढा, संखेज्जा सिलोगा, संखेज्जाओ निज्जुत्तीओ, संखेज्जाओ संगहणीओ। उपासकदशा अंग में परीत वाचनाएं हैं, संख्यात अनुयोगद्वार हैं, संख्यात प्रतिपत्तियां हैं, संख्यात वेढ हैं, संख्यात श्लोक हैं, संख्यात नियुक्तियां हैं और संख्यात संग्रहणियां हैं। 538 -से गं अंगट्ठयाए सत्तमे अंगे, एगे सुयक्खंधे, दस अज्झयणा, दस उद्देसणकाला, दस समुद्देसणकाला, संखेज्जाई पयसयसहस्साई पयग्गेणं पण्णत्ताई। संखेज्जाई अक्खराइं, अणंत प्रणंता पज्जवा, परित्ता तसा, अणंता थावरा, सासया कडा णिबद्धा णिकाइया जिणपण्णत्ता भावा प्राविज्जति पण्णविज्जति, परूविज्जंति, निदंसिज्जति उवदंसिज्जति / से एवं आया से एवं गाया, एवं विष्णाया, एवं चरइ-करण परूवणया प्राधविज्जति / से तं उबासगदसाओ 7 / यह उपासकदशा अंग की अपेक्षा सातवां अंग है / इसमें एक श्रुतस्कन्ध है, दश अध्ययन हैं, दश उद्देशन-काल हैं, दश समुद्देशन-काल हैं। पद-गणना की अपेक्षा संख्यात लाख पद हैं, संख्यात अक्षर हैं, अनन्त गम हैं, अनन्त पर्याय हैं, परीत त्रस हैं, अनन्त स्थावर हैं। ये सब शाश्वत, अशाश्वत, निबद्ध निकाचित जिनप्रज्ञप्त भाव इस अंग में कहे गए हैं, प्रज्ञापित किये गए हैं, प्ररूपित किये गए हैं, निदर्शित और उपदर्शित किये गए हैं / इस अंग के द्वारा आत्मा ज्ञाता होता है, विज्ञाता होता है / इस प्रकार चरण और करण की प्ररूपणा के द्वारा वस्तु-स्वरूप का कथन, प्रज्ञापन, प्ररूपण, निदर्शन और उपदर्शन किया जाता है / यह सातवें उपासकदशा अंग का विवरण है। ५३९-से कि तं अंतगडदसायो ? अंतगडदसासु णं अंतगडाणं जगराइं उज्जाणाई चेइयाई वणाइ (वणखण्डा) राया अम्मा-पियरो समोसरणा धम्मायरिया धम्मकहा इहलोइअ-परलोइअ-इड्डिविसेसा भोगपरिच्चाया पव्वज्जाम्रो सयपरिग्गडा तवोवहाणाई पडिमानो बहुविद्वानो खम महवं च सोअंच सच्चसहियं सत्तरसविहो य संजमो उत्तमं च बंभं आकिंचणया तवो चियानो समिइगुत्तीओ चेव / तह अप्पमायजोगो सज्झायज्झाणाण य उत्तमाणं दोण्हं पि लक्खणाई। पत्ताण य संजमुत्तमं जियपरीसहाणं चउन्विहकम्मक्खयम्मि जह केवलस्स लंभो परियाओ जत्तिओ य जह पालियो मुहिं पायोवगयो य, जो जहि जत्तियाणि भत्ताणि छेअइत्ता अंतगडो मुनिवरो तमरयोघ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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