________________ 182] | समवायाङ्गसूत्र 534 - एगूणतीसं उद्देसणकाला, एगूणतीसं समुद्देसणकाला, संज्जाइं पयसहस्साई पयग्गेणं पण्णत्ता। संखेज्जा अक्खरा, अणंता गमा, अणता पज्जवा, परित्ता तसा, अणंता थावरा, सासया कडा निबद्ध निकाइया जिणपण्णत्ता भावा आघविज्जति पाणविज्जति परूविज्जति निदंसिज्जति उवदंसिज्जंति / से एवं प्राया, से एवं णाया, एवं विण्णाया, एवं चरण-करणपरूवणया प्राधविज्जंतिः / से तं णायाधम्मकहाओ 6 / ज्ञाताधर्मकथा में उनतीस उद्देशन काल हैं, उनतीस समूद्देशन-काल हैं, पद-गणना की अपेक्षा संख्यात हजार पद हैं, संख्यात अक्षर हैं, अनंत गम हैं, परीत त्रस हैं, अनन्त स्थावर हैं। ये सब शाश्वत, कृत, निबद्ध, निकाचित, जिन-प्रज्ञप्त भाव इस ज्ञाताधर्मकथा में कहे गए हैं, प्रज्ञापित किये गए हैं, निदर्शित किये गए हैं, और उशित किये गए हैं / इस अंग के द्वारा आत्मा ज्ञाता होता है, विज्ञाता होता है। इस प्रकार चरण और करण की प्ररूपणा के द्वारा (कथाओं के माध्यम से) वस्तु-स्वरूप का कथन, प्रज्ञापन, प्ररूपण, निदर्शन और उपदर्शन किया गया है / यह छठे ज्ञाताधर्मकथा अंग का परिचय ५३५-से कि तं उवासगदसाओ? उवासगदसासु उवासयाणं जगराई उज्जाणाई चेइआइं वणखडा रायाणो अम्मा-पियरो समोसरणाई धम्मायरिया धम्मकहानो इहलोइय-परलोइय-इडिविसेसा, उवासयाणं सीलव्वय-वेरमण-गुण-पच्चक्खाण-पोसहोववासपडिवज्जणयानो सुपरिग्गहा तवोवहाणा पडिमाओ उवसग्गा संलेहणाओ भत्तपच्चक्खाणाई पाओवगमणाई देवलोगगमणाई सुकुलपचायाई पणो बोहिलाभा अंतकिरियाम्रो प्राविज्जति परूविज्जति दंसिज्जति निदंसिज्जति उवदंसिज्जति / उपासकदशा क्या है-उसमें क्या वर्णन है ? उपासकदशा में उपासकों के 1 नगर, 2 उद्यान, 3 चैत्य, 4 वनखण्ड, 5 राजा, 6 माता-पिता, 7 समवसरण, 8 धर्माचार्य, 9 धर्मकथाएं, 10 इहलौकिक-पारलौकिक ऋषि-विशेष, 11 उपासकों के शीलव्रत, पाप-विरमण, गुण, प्रत्याख्यान, पोषधोपवास-प्रतिपत्ति, 12 श्रुत-परिग्रह, 13 तप-उपधान, 14 ग्यारह प्रतिमा, 15 उपसर्ग, 16 संलेखना, 17 भक्तप्रत्याख्यान, 18 पादपोपगमन, 19 देवलोक गमन, 20 सुकुल-प्रत्यागमन, 21 पुनः बोधिलाभ और 22 अन्तक्रिया का कथन किया गया है, प्ररूपणा की गई है, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन किया गया है। ५३६--उवासगदसासु णं उवासयाणं रिद्धिविसेसा परिसा वित्थरधम्मसवणाणि बोहिलाभअभिगम-सम्मत्तविसुद्धया थिरतं मूलगुण-उत्तरगुणाइयारा ठिईविसेसा पडिमाभिग्गहरगहणपालणा उक्सग्गाहियासणा णिरुवसग्गा य तवा य विचित्ता सीलव्वय-गुण-वेरमण-पच्चक्खाण-पोसहोववासा अपच्छिममारणंतियाऽ य संलेहणा-झोसणाहि अप्पाणं जह य भावइत्ता बहूणि भत्ताणि अणसणाए य छेअइत्ता उववण्णा कप्पवरविमाणुत्तसेसु जह अणुभवंति सुरवर-विमाणवर-पोंडरीएसु सोक्खाई अणोवमाइं कमेण भुत्तूण उत्तमाइं तओ आउक्खएणं चुया समाणा जह जिणमयम्मि बोहि लक्ष्ण य संजमुत्तमं तमरयोपविष्पमुक्का उति जह अक्खयं सव्वदुक्खमोक्खं / एते अन्ने य एवमाइअत्था वित्थरेण य। उपासकदशांग में उपासकों (श्रावकों) की ऋद्धि-विशेष, परिषद् (परिवार), विस्तृत धर्म-श्रमण बोधिलाभ, धर्माचार्य के समीप अभिगमन, सम्यक्त्व की विशुद्धता, व्रत की स्थिरता, मूलगुण और उत्तर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org