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________________ द्वादशाङ्ग गणिपिटक ] [195 पडिमाओ संलेहणाओ भतपाणपच्चक्खाणाइं पाओवगमणाई अणुत्तरोवबानो सुकुलपच्चायाई, पुणो बोहिलाभो अंतकिरियायो य आघविज्जति परूविज्जति दंसिज्जति निदंसिज्जंति उवदंसिज्जति / अनुत्तरोपपातिकदशा क्या है ? इसमें क्या वर्णन है ? अनुत्तरोपपातिकदशा में अनुत्तर विमानों में उत्पन्न होने वाले महा अनगारों के नगर, उद्यान चैत्य, वनखंड, राजगण, माता-पिता, समवसरण, धर्माचार्य, धर्मकथाएं, इहलौकिक पारलौकिक विशिष्ट ऋद्धियां, भोग-परित्याग. प्रव्रज्या. श्रत का परिग्रहण, तप-उपधान, पर्याय, प्रतिमा, संलेखना, भक्तप्रत्याख्यान, पादपोपगमन, अनुत्तर विमानों में उत्पाद, फिर सूकूल में जन्म, पूनः बोधि-लाभ और अन्तक्रियाएं कही गई हैं, उनकी प्ररूपणा की गई है, उनका दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन कराया गया है। ५४३---अणुत्तरोववाइयदसासु णं तित्थकरसमोसरणाइं परममंगल-जगहियाणि जिणातिसेसाय बहुविसेसा जिणसोसाणं चेव समणगण-पवर-गंधहत्थोणं थिरजसाणं परीसहसेण्ण-रिउबल-पमद्दणाणं तव दित्त चरित्त-णाण-सम्मत्तसार-विविहप्पगार-वित्थर-पसत्थगुणसंजुयाणं अणगारमहरिणीणं अणगारगुणाण वण्णओ, उत्तमवरतव-विसिटणाण-जोगजुत्ताणं, जह य जगहियं भगवनो जारिसा इडिविसेसा देवाप्नुर-माणुसाणं परिसाणं पाउडभावा य जिणसमीवं, जह य उवासंति, जिणवरं जह य परिकहंति धम्मं लोगगुरू अमर-नर-सुर-गणाणं सोऊण य तस्स भासियं अवसेसकम्मविसयविरत्ता नरा जहा अन्भवेति धम्ममुरालं संजमं तवं चावि बहुविहप्पगारं जह बहूणि वासाणि अणुचरिता आराहियनाणदंसण-चरित्त-जोगा जिणवयणमणुगयमहियं भासिया जिणवराण हिययेणमणुण्णेत्ता जे य हिं जत्तियाणि भत्ताणि छेअइत्ता लद्धण य समाहिमुत्तमज्झाणजोगजुत्ता उववन्ना मुणिवरोत्तमा जह अणुत्तरेसु पावंति जह अणुत्तरं तत्थ विसयसोक्खं / तओ य चुप्रा कमेण काहिंति संजया जहा य अंत किरियं एए अन्न य एबमाइअत्था वित्थरेण। अनुत्तरोपपातिकदशा में परम मंगलकारी, जगत-हितकारी तीर्थंकरों के समवसरण और बहुत प्रकार के जिन-अतिशयों का वर्णन है। तथा जो श्रमणजनों में प्रवरगन्धहस्ती के समान श्रेष्ठ हैं, स्थिर यशवाले हैं, परीषह-सेना रूपी शत्रु-बल के मर्दन करने वाले हैं, तप से दीप्त हैं, जो चारित्र, ज्ञान, सम्यक्त्वरूप सारवाले अनेक प्रकार के विशाल प्रशस्त गुणों से संयुक्त हैं, ऐसे अनगार महर्षियों के अनगार-गुणों का अनुत्तरोपपातिकदशा में वर्णन है। अतीव, श्रेष्ठ तपोविशेष से और विशिष्ट ज्ञान-योग से युक्त हैं, जिन्होंने जगत् हितकारी भगवान् तीर्थंकरों की जैसी परम आश्चर्यकारिणी ऋद्धियों को विशेषताओं को और देव, असुर, मनुष्यों को सभाओं के प्रादुर्भाव को देखा है, वे महापुरुष जिस प्रकार जिनवर के समीप जाकर उनकी जिस प्रकार से उपासना करते हैं, तथा अमर, नर, सुरगणों के लोकगुरु वे जिनवर जिस प्रकार से उनको धर्म का उपदेश देते हैं वे क्षीणकर्मा महापुरुष उनके द्वारा उपदिष्ट धर्म को सुनकर के अपने समस्त काम-भोगों से और इन्द्रियों के विषयों से विरक्त होकर जिस प्रकार से उदार धर्म को और विविध प्रकार से संयम और तप को स्वीकार करते हैं, तथा जिस प्रकार से बहुत वर्षों तक उनका आचरण करके, ज्ञान, दर्शन, चारित्र योग की आराधना कर जिन-वचन के अनुगत (अनुकूल) पूजित धर्म का दूसरे भव्य जीवों को उपदेश देकर और अपने शिष्यों को अध्ययन करवा तथा जिनवरों की हृदय से आराधना कर वे उत्तम मुनिवर जहां पर जितने भक्तों का अनशन के द्वारा छेदन कर, समाधि को प्राप्त कर और उत्तम ध्यान योग से नि योग से युक्त होते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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