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________________ 48] [समवायाङ्गसूत्र १०७-मणूसाणं पण्णरसविहे पओगे पण्णत्ते, तं जहा---सच्चमणपओगे (1), मोसमणपओगे (2), सच्चमोसमणपओगे (3), असच्चामोसमणपनोगे (4), सच्चवइपओगे (5), मोसवइपओगे (6), सच्चमोसवइपओगे (7), असच्चामोसवइपओगे (8), ओरालिअसरीरकायपओगे (9), ओरालिअमीससरीरकायपओगे (10), वेउब्वियसरीरकायपओगे (11), वेउस्विमीससरीकायपओगे (12), आहारयसरीरकायप्पओगे (13), आहारयमोससरीरकायप्पओगे (14), कम्मयसरीरकायप्पओगे (15) / ___मनुष्यों के पन्द्रह प्रकार के प्रयोग कहे गये / जैसे—१. सत्यमनःप्रयोग, 2. मृषामन: प्रयोग, 3. सत्यमृषामनःप्रयोग, 4. असत्यमृषामनःप्रयोग, 5. सत्यवचनप्रयोग, 6. मृषावचनप्रयोग, 7. सत्यमृषावचनप्रयोग, 8. असत्यमृषावचनप्रयोग, 9. औदारिक शरीरकाय प्रयोग, 10. औदारिक मिश्र शरीरकायप्रयोग, 11. वैक्रिय शरीरकायप्रयोग, 12. वैक्रियमित्र शरीरकायप्रयोग, 13. आहारक शरीरकायप्रयोग, 14. आहारकमिश्र शरीरकायप्रयोग और 15. कार्मण शरीरकायप्रयोग। विवेचन--प्रात्मा के परिस्पन्द क्रियापरिणाम या व्यापार को प्रयोग कहते हैं। अथवा जिस क्रियापरिणाम रूप योग के साथ आत्मा प्रकर्ष रूप से सम्बन्ध को प्राप्त हो उसे प्रयोग कहते हैं / सत्य अर्थ के चिन्तन रूप व्यापार को सत्यमनःप्रयोग कहते हैं। इसी प्रकार मृषा (असत्य) अर्थ के चिन्तनरूप व्यापार को मृषामनःप्रयोग, सत्य असत्य रूप दोनों प्रकार के मिश्रित अर्थ-चिन्तन रूप व्यापार को सत्य-मृषामनःप्रयोग, तथा सत्य-मृषा से रहित अनुभय अर्थ रूप चिन्तन को असत्यामृषामन:प्रयोग कहते हैं। इसी प्रकार से सत्य, मृषा ग्रादि चारों प्रकार के वचन-प्रयोगों का अर्थ जानना चाहिए / प्रौदारिक शरीर वाले पर्याप्तक मनुष्य-तिर्यचों के शरीर-व्यापार को ग्रौदारिकशरीर कायप्रयोग और अपर्याप्तक उन्हीं मनुष्य-तिर्यंचों के शरीर-व्यापार को औदारिक मिश्र शरीरकायप्रयोग कहते हैं। इसी प्रकार से पर्याप्तक देव-नारकों के वैक्रिय शरीर के व्यापार को वैक्रियशरीर कायप्रयोग और अपर्याप्तक उन्हीं देव-नारकों के शरीरव्यापार को वैक्रिय मिश्र शरीर कायप्रयोग कहते हैं। अहारकशरीरी होकर औदारिक शरीर पुन: ग्रहण करते समय के व्यापार को ग्राहारक मिश्रशरीर कायप्रयोग और आहारकशरीर के व्यापार के समय पाहारक शरीरकायप्रयोग होता है। एक गति को छोड़कर अन्य गति को जाते हुए विग्रहगति में जीव के जो योग होता है, उसे कार्मण शरीरकायप्रयोग कहते हैं। केवली भगवान् के समुद्घात करने की दिशा में तीसरे, चौथे और पांचवें समय में भी कार्मणशरीर काययोग होता है / १०८-इमोसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्यंगइआणं नेरइयाणं यन्नरस पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता / पंचमीए पुढवीए अत्थेगइआणं नेरइयाणं पन्नरस सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता / असुरकुमाराणं देवाणं अत्यंग इआणं पन्नरस पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता। सोहम्मोसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइप्राणं देवाणं पन्नरस पलिग्रोवमाई ठिई पण्णत्ता। इस रत्नप्रभा पृथिवी में कितनेक नारकों की स्थिति पन्द्रह पल्योपम कही गई है। पांचवीं धूमप्रभा पृथिवी में कितनेक नारकों की स्थिति पन्द्रह सागरोपम कही गई है। कितनेक असुरकुमार देवों की स्थिति पन्द्रह पल्योपम कही गई है। सौधर्म ईशान कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति पन्द्रह पल्योपम कही गई है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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