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________________ षोडशस्थानक समवाय] [49 - १०९-महासुक्के कप्पे अत्थेगइआणं देवाणं पन्नरस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। जे देवा णंदं सणंदं गंदावत्त गंदप्पभं गंदकंतं गंदवणं गंदलेसं णंदज्झयं णंदसिंगं गंदसिटठं गंदकडं गंदत्तरडिसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं पन्नरस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। तेणं देवा पण्णरसण्हं अद्धमासाणं आणमंति वा, पाणमंति वा. उस्ससंति वा. नीससंति वा / तेसि णं देवाणं पण्णरसहि वाससहस्सेहिं आहारट्ठे समुप्पज्जइ / / संतेगइआ भवसिद्धिआ जीवा जे पण्णरसहिं भवग्गहणेहि सिज्झिस्संति बुज्झिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति / महाशुक्र कल्प में कितनेक देवों की स्थिति पन्द्रह सागरोपम कही गई है। वहाँ जो देव नन्द, सुनन्द, नन्दावर्त, नन्दप्रभ, नन्दकान्त, नन्दवर्ण, नन्दलेश्य, नन्दध्वज, नन्दशृग, नन्दसृष्ट, नन्दकूट और नन्दोत्तरावतंसक नाम के विशिष्ट विमानों में देव रूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति पन्द्रह सागरोपम कही गई है। वे देव पन्द्रह अर्धमासों (साढ़े सात मासों) के बाद पान-प्राण उच्छ्वास-निःश्वास लेते हैं। उन देवों को पन्द्रह हजार वर्षों के बाद आहार की इच्छा उत्पन्न होती है। कितनेक भव्यसिद्धिक जीव ऐसे हैं, जो पन्द्रह भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परिनिर्वाण प्राप्त होंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे। / / पंचदशस्थानक समवाय समाप्त // षोडशस्थानक-समवाय ११०--सोलस य गाहा-सोलसगा पण्णत्ता। तं जहा—'समए 'वेयालिए उवसग्गपरिन्ना "इत्थोपरिण्णा 'निरयविभत्ती महावीरथुई "कुसोलपरिभासिए वोरिए धम्मे '"समाही "मग्गे १२समोसरणे आहातहिए 'गंथे ''जमईए गाहासोलसमे "सोलसगे। सोलह गाथा-षोडशक कहे गये हैं / जैसे-१ समय, 2 वैतालीय, 3 उपसर्ग परिज्ञा, 4 स्त्रीपरिज्ञा, 5 नरकविभक्ति, 6 महावीरस्तुति, 7 कुशीलपरिभाषित, 8 वीर्य, 9 धर्म, 10 समाधि, 11 मार्ग, 12 समवसरण, 13 याथातथ्य, 14 ग्रन्थ, 15 यमकीय और 16 सोलहवाँ गाथा / विवेचन -सूत्रकृतांग सूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध में 'समय' आदि नाम वाले सोलह अध्ययन हैं, इसलिए वे 'गाथा-षोडशक' के नाम से प्रसिद्ध हैं / पहले अध्ययन में नास्तिक आदि के समयों (सिद्धान्तों या मतों) का प्रतिपादन किया गया है। दूसरे अध्ययन की रचना वैतालीय छन्दों में की गई है, अतः उसे वैतालीय कहते हैं। इसी प्रकार शेष अध्ययनों का कथन जान लेना चाहिए / समवसरण-अध्ययन में तीन सौ तिरेसठ मतों का समुच्चय रूप से वर्णन किया गया है। सोलहवें अध्ययन को पूवोक्त पन्द्रह अध्ययनों के अर्थ का गान करने से, गाथा नाम से कहा गया है। १११-सोलस कसाया पण्णता / तं जहा-अणंताणुबंधी कोहे, अणंताणुबंधी माणे, अणंताणुबंधी माया, अणंताणुबंधी लोभे; अपच्चक्खाणकसाए कोहे, अपच्चक्खाणकसाए माणे, अपच्चक्खाण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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