________________ [ 47 पञ्चदशस्थानक समवाय ] पंचमीए पंचभाग, छट्ठीए छभाग, सत्तमोए सत्तभागं, अट्ठमीए अट्ठभागं, नवमीए नवभाग, दसमीए दसभागं, एक्कारसीए एक्कारसभागं, बारसीए बारसभागं, तेरसीए तेरसभागं, चउद्दसोए चउद्दसभाग, पन्नरसेसु पन्नरसभागं, [आवरेत्ताण चिट्ठति तं चेव मुक्कपक्खस्स य उवदंसेमाणे उबदंसेमणे चिट्ठति / तं जहा–पढमाए पढमभागं जाव पन्नरसेसु पन्नरसभागं उवदंसेमाणे उवदंसेमाणे चिट्ठति / ध्र वराहु कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा के दिन से चन्द्र लेश्या के पन्द्रहवें-पन्द्रहवें दीप्तिरूप भाग को अपने श्यामवर्ण से प्रावरण करता रहता है / जैसे--प्रतिपदा के दिन प्रथम भाग को, द्वितीया के दिन द्वितीय भाग को, तृतीया के दिन तीसरे भाग को, चतुर्थी के दिन चौथे भाग को, पंचमी के दिन पांचवें भाग को, पष्ठी के दिन छठे भाग को, सप्तमी के दिन सातवें भाग को, अष्टमी के दिन पाठवें भाग को, नवमी के दिन नौवें भाग को, दशमी के दिन दशव भाग को, एकादशी के दिन ग्यारहवें भाग को, द्वादशी के दिन बारहवें भाग को, त्रयोदशी के दिन तेरहवें भाग को, चतुर्दशी के दिन चौदहवें भाग को और पन्द्रस (अमावस) के दिन पन्द्रहवें भाग को आवरण करके रहता है / वही ध्र वराहु शुक्ल पक्ष में चन्द्र के पन्द्रहवें-पन्द्रहवें भाग को उपदर्शन कराता रहता है। जैसे प्रतिपदा के दिन पन्द्रहवें भाग को प्रकट करता है, द्वितीया के दिन दूसरे पन्द्रहवें भाग को प्रकट करता है। इस प्रकार पूर्णमासी के दिन पन्द्रहवें भाग को प्रकट कर पूर्ण चन्द्र को प्रकाशित करता है। विवेचन-राहु दो प्रकार के माने गये हैं-एक पर्वराहु और दूसरा ध्र वराहु। इनमें से वराह तो पणिमा के दिन छह मास के बाद चन्द्र-विमान का आवरण करता है और ध्र वराह चन्द्रविमान से चार अंगुल नीचे विचरता हुआ चन्द्र की एक-एक कला को कृष्ण पक्ष में आवृत करता और शुक्ल पक्ष में एक-एक कला को प्रकाशित करता रहता है / चन्द्रमा की दीप्ति या प्रकाश को चन्द्रलेश्या कहा जाता है। १०४-छ णक्खता पन्नरसमुहत्तसंजुत्ता, तं जहा--- सतभिसय भरणि अद्दा असलेसा साई तहा जेट्ठा। एते छण्णक्खता पन्नरसमुहत्तसंजुत्ता // 1 // छह नक्षत्र पन्द्रह मुहर्त तक चन्द्र के साथ संयोग करके रहने वाले कहे गये हैं। जैसेशतभिषक्, भरणी, प्रार्दा, आश्लेषा, स्वाति और ज्येष्ठा / ये छह नक्षत्र पन्द्रह मुहूर्त तक चन्द्र से संयुक्त रहते हैं / / 1 / / १०५-चेत्तासोएसु णं मासेसु पन्नरसमुहुत्तो दिवसो भवति / एवं चेत्तासोयमासेसु पण्णरसमुहुत्ता राई भवति / चैत्र और प्रासौज मास में दिन पन्द्रह-पन्द्रह मुहूर्त का होता है। इसी प्रकार चैत्र और प्रासौज मास में रात्रि भी पन्द्रह-पन्द्रह मुहूर्त की होती है। १०६---विज्जाअणुप्पवायस्स णं पुवस्स पन्नरस वत्थू पण्णत्ता। विद्यानुवाद पूर्व के वस्तु नामक पन्द्रह अर्थाधिकार कहे गये हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org