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________________ पंचविंशतिस्थानक समवाय] मालोयणवज्जणया पुव्वरय-पुत्व-कोलिग्राणं अणणुसरणया पणीताहारविवज्जणया 4, सोइंदियरागोवरई चक्खिदियरागोवरई घाणिदियरागोवरई जिभिदियरागोवरई फासिदियरागोवरई 5 / प्रथम और अन्तिम तीर्थंकरों के (द्वारा उपदिष्ट) पंचयाम की पच्चीस भावनाएं कही गई हैं / जैसे-[प्राणातिपात-विरमण या अहिंसा महावत की पांच भावनाएं-] 1. ईर्यासमिति, 2. मनोगुप्ति, 3. वचन गुप्ति, 4. आलोकितपान-भोजन, 5. आदानभांड-मात्रनिक्षेपणासमिति / [मृषावाद-विरमण या सत्य महाव्रत की पांच भावनाएं--] 1. अनुवीचिभाषण, 2. क्रोध-विवेक, 3. लोभ-विवेक, 4. भयविवेक, 5. हास्य-विवेक / [अदत्तादान-विरमण या अचौर्य महाव्रत की पांच भावनाएं---] 1. अवग्रहअनुज्ञापनता, 2. अवग्रहसीम-ज्ञापनता, 3. स्वयमेव अवग्रह-अनुग्रहणता, 4. सार्मिक अवग्रह नता, 5. साधारण भक्तपान-अनज्ञाप्य परिभ जनता, [मैथन-विरमण या ब्रह्मचर्य महाव्रत की पांच भावनाएं-] 1. स्त्री-पशु-नपुसक-संसक्त शयन-पासन वर्जनता, 2. स्त्रीकथाविवर्जनता, 3. स्त्री इन्द्रिय-[मनोहराङ्ग] आलोकनवर्जनता, 4. पूर्वरत-पूर्वक्रीडा-अननुस्मरणता, 5. प्रणीत-पाहारविवर्जनता। [परिग्रह-वेरमण महाव्रत की पांच भावनाएं-] 1. श्रोत्रेन्द्रिय-रागोपरति, 2. चक्षरिन्द्रिय-रागोपरति, 3. घ्राणेन्द्रिय-रागोपरति, 4. जिह्वन्द्रिय-रागोपरति, और 5. स्पर्शनेन्द्रियरागोपरति। विवेचन- मध्य के बाईस तीर्थंकरों के शासन में पंचमहाव्रत के स्थान पर चातुर्याम धर्म प्रचलित था, अतएव यहाँ प्रथम और चरम तीर्थकर का ग्रहण किया गया है / :प्रादितीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव और चरम तीर्थंकर वर्धमान स्वामी ने जिन पंचयाम व्रतों का उपदेश दिया तथा उनकी रक्षा के लिए प्रत्येक व्रत को पांच-पांच भावनाओं के चिन्तन, मनन और आचरण करने का भी विधान किया है / यावज्जीवन के लिए स्वीकृत अहिंसा महाव्रत तभी सुरक्षित रह सकता है जबकि भूमि पर दष्टि रख कर जीवों की रक्षा करते हए गमन किया जाए, मन की चंचलता पर नियन्त्रण रखा जाए, बोलते समय नियन्त्रण रखते हुए हित, मित, प्रिय वचन बोले जाएं, सूर्य से प्रकाशित स्थान पर भली-भांति देख-शोध कर खान-पान किया जाए और वस्त्र-पात्र आदि को उठाते और रखते समय सावधानी रखो जाए / ये ही प्रथम महाव्रत की पाँच भावनाएं हैं। ___ सत्य महाव्रत की रक्षा के लिए आवश्यक है कि खूब सोच-विचार करके बोला जाए, क्रोध का त्याग किया जाए, लोभ का त्याग किया जाए, भय का त्याग किया जाए, और हास-परिहास का त्याग किया जाए। विचार किये विना बोलने से असत्य वचन का मुख से निकलना सम्भव है, क्रोध के आवेश में भी प्रायः असत्य वचन मुख से निकल जाते हैं, लोभ से तो मनुष्य प्रायः झठ बोलते ही हैं, भय से भी व्यक्ति असत्य बोल जाता है और हंसी में भी दूसरे को अपमानित करने या उसका मजाक उड़ाने के लिए असत्य बोलना प्राय: देखा जाता है। अत: सत्य महाव्रत की पूर्ण रक्षा के लिए अनुवीचिभाषण और क्रोध, लोभ, भय और हास्य का परित्याग आवश्यक है। अचौर्य महाव्रत की रक्षा के लिए आवश्यक है कि किसी भी वस्तु को ग्रहण करने से पहले उसके स्वामी से अनुज्ञा या स्वीकृति प्राप्त कर ली जाए, अपनी सीमा या मर्यादा के ज्ञानपूर्वक ही वस्तु ग्रहण की जाय, स्वय याचना करके वस्तु ग्रहण की जाए, अपने सार्मिकों को प्राहार-पानी के लिए ग्रामन्त्रण देकर खान-पान किया जाए और याचना करके लाये हए भक्त-पानादि को गूरुजनों के आगे निवेदन कर और उनकी अनुज्ञा प्राप्त कर आहार किया जाय / संस्कृतटीकाकार ने परिजनता की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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