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________________ 70] [समवायाङ्गसूत्र (उद्गम-) स्थान पर कुछ अधिक चौबीस-चौबीस कोश विस्तार वाली कही गई हैं। [इसी प्रकार] रक्ता-रक्तवती महानदियाँ प्रवाह-स्थान पर कुछ अधिक चौबीस-चौबीस कोश विस्तारवाली कही १६४--इमोसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइआणं नेरइयाणं ठिई चउवोसं पलिग्रोवमाई पण्णत्ता। अहेसत्तमाए पुढवीए अत्थेगइआणं नेरइयाणं चउबीसं सागरोवमाई ठिई पण्णता / असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं चउवीसं पलिओवभाई ठिई पण्णत्ता। सोहम्मीसाणे णं देवाणं अत्थेगइयाणं चउवीसं पलिग्रोवमाइं ठिई पण्णता / रत्नप्रभा पृथिवी में कितनेक नारकियों की स्थिति चौबीस पल्योपम कही गई है। अधस्तन सातवीं पृथिवी में कितनेक नारकियों की स्थिति चौबीस सागरोपम कही गई है। कितनेक असुरकुमार देवों को स्थिति चौबीस पल्योपम कही गई है। सौधर्म-ईशान कल्प में कितनेक देवों को स्थिति चौबीस पल्योपम कही गई है। १६५--हेट्ठिम-उवरिमगेवेज्जाणं देवाणं जहण्णेणं चउवीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। जे देवा हेद्विममज्झिमगेवेज्जयविमाणेसु देवत्ताए उववण्णा, तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं चउवीसं सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता / ते णं देवा चउवीसाए अद्धमासाणं प्राणमंति वा, पाणमंति वा, ऊससंति वा णीससंति वा / तेसि णं देवाणं चउवीसाए वाससहस्सेहिं पाहारट्टे समुप्पज्जा / संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे चउवीसाए भवग्गहणेहि सिज्झिस्संति बुज्झिस्संति मुच्चिस्संति परिनिवाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति / अधस्तन-उपरिम ग्रेवेयक देवों की जघन्य स्थिति चौबीस सागरोपम कही गई है। जो देव अधस्तन-मध्यम ग्रैवेयक विमानों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति चौबीस सागरोपम कही गई है। वे देव चौबीस अर्धमासों (बारह मासों) के बाद प्रान-प्राण या उच्छवासनिःश्वास लेते हैं। उन देवों को चौबीस हजार वर्षों के बाद आहार की इच्छा उत्पन्न होती है। कितनेक भवसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो चौबीस भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मो से मुक्त होंगे, परम निर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे। स्थानक समवाय समाप्त / / पंचविंशतिस्थानक-समवाय १६६--पुरिम-पच्छिमगाणं तित्थगराणं पंचजामस्स पणवीसं भावणासो पण्णत्तामो, तं जहाईरिग्रासमिई मणगुत्ती क्यगुत्ती आलोयपाणभोयणं आदाण-भंड-मत्तणिक्खेवणामिई 5, अणुवीतिभासणया कोहविवेगे लोभविवेगे भयविवेगे हासविवेगे 5, उग्गहअणुण्णवणया उग्गहसीमजाणणया सयमेव उग्गहं अणुगिण्हणया साहम्मिय उग्गहं अणुण्णविय परिभुजणया साहारणभत्तपाणं अणुण्णविय पडिभुजणया 5, इत्थी-पसु-पंडगसंसत्तगसयणासणवज्जणया इत्थीकहविवज्जणया इत्थीणं इंदियाण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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