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________________ चतुर्विशतिस्थानक समवाय] चतुविंशतिस्थानक-समवाय १६०–चउव्वीसं देवाहिदेवा पण्णत्ता / तं जहा-उसभ-अजित-संभव-अभिणंदण-सुमइपउमपह-सुपास-चंदप्पह-सुविधि-सीअल-सिज्जंस - बासुपुज्ज-विमल-अणंत-धम्म-संति-कुथु - अर-मल्लीमुणिसुन्वय-नमि-नेमी-पास-बद्धमाणा। चौबीस देवाधिदेव कहे गये हैं / जैसे--ऋषभ, अजित, संभव, अभिनन्दन, सुमति, पद्मप्रभ, सुपार्श्व, चन्द्रप्रभ, सुविधि (पुष्पदन्त) शीतल, श्रेयान्स, वासुपूज्य, विमल, अनन्त, धर्म, शान्ति, कुन्थु, अर, मल्ली, मुनिसुव्रत, नमि, नेमि, पार्श्वनाथ और वर्धमान / १६१-चुल्लहिमवंत-सिहरोणं वासहरपव्वयाणं जीवानो चउच्चीसं चउच्वोसं जोयणसहस्साई णव-वत्तीसे जोयणसए एग अदृत्तीसह भागं जोयणस्स किचि विसेसाहियाम्रो आयामेणं पण्णत्ता। क्षुल्लक हिमवन्त और शिखरी वर्षधर पर्वतों की जीवाएं चौबीस-चौबीस हजार नौ सौ बत्तीस योजन और एक योजन के अड़तीस भागों में से एक भाग से कुछ अधिक (2493238 साधिक) लम्बी कही गई है। १६२---चउवीसं देवट्ठाणा सइंदया पण्णत्ता, सेसा अहमिदा अनिदा अपुरोहिया। चौबीस देवस्थान इन्द्र-सहित कहे गये हैं। शेष देवस्थान इन्द्र-रहित, पुरोहित-रहित हैं और वहां के देव अहमिन्द्र कहे जाते हैं। विवेचन-जो चौबीस देवस्थान इन्द्र-सहित कहे गये हैं, वे इस प्रकार हैं—दश जाति के भवन दश स्थान. पाठ जाति के व्यन्तर देवों के पाठ स्थान, पांच प्रकार के ज्योतिष्क देवों के पाँच स्थान और सौधर्मादि कल्पवासी देवों का एक स्थान / इस प्रकार ये सब मिलकर (10+8+ 5+1=24) चौबीस होते हैं। इन सभी स्थानों में राजा-प्रजा आदि जैसी व्यवस्था है, अत: उनके अधिपतियों को इन्द्र कहा जाता है। किन्तु नौ ग्रैवेयक और पांच अनुत्तर विमानों में राजा प्रजा आदि की कल्पना नहीं है, किन्तु वहाँ के सभी देव समान ऐश्वर्य एवं वैभववाले हैं, वे सभी अपने को 'अहम् + इन्द्र:' 'मैं इन्द्र हूँ' इस प्रकार अनुभव करते हैं, इसलिये वे 'अहमिन्द्र' कहलाते हैं और इसी कारण उन चौदह ही स्थानों को अनिन्द्र (इन्द्र-रहित) और अपुरोहित (पुरोहित-रहित) कहा गया है / यह अपुरोहित शब्द उपलक्षण है, अतः जहाँ इन्द्र होता है, वहाँ उसके साथ सामानिक, त्रायस्त्रिश, आत्म-रक्षक, पुरोहित और लोकपालादि भी होते हैं। किन्तु जहाँ इन्द्र की कल्पना नहीं है, उन देवस्थानों को 'अनिन्द्र, अपुरोहित' आदि शब्दों से कहा गया है। १६३--उत्तरायणगते णं सूरिए चउवीसंगुलिए पोरिसिछायं णिवत्तइत्ता णं णित्ति / गंगासिंधूनो णं महाणदीओ पवहे सातिरेगेणं चउधीसं कोसे वित्थारेणं पण्णते। रत्ता-रत्तवतीनो णं महाणदीग्रो पवाहे सातिरेगे चउवीसं कोसे विस्थारेणं पण्णत्ते। उत्तरायण-गत सूर्य चौबीस अंगुलवाली पौरुषी छाया को करके कर्क संक्रान्ति के दिन सर्वाभ्यन्तर मंडल से निवृत्त होता है, अर्थात् दूसरे मंडल पर आता है। गंगा-सिन्धु महानदियाँ प्रवाह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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