SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 193
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 72] [समवायाङ्गसूत्र व्याख्या करते हुए अथवा कह कर उसका निवास अर्थ भी किया है, जिसका अभिप्राय यह है कि जिस स्थानक या उपाश्रय आदि में निवास किया जाए, उसके स्वामी से स्वीकृति प्राप्त करके ही निवास किया जाय। ब्रह्मचर्य महाव्रत की रक्षा के लिए स्त्री, पशु, नपुसक दुराचारी मनुष्यों के सम्पर्क वाले स्थान पर सोने या बैठने का त्याग किया जाए, स्त्रियों की राग-वर्धक कथाओं का और उनके मनोहर अंगोपांगों को देखने का त्याग किया जाए, पूर्वकाल में स्त्री के साथ भोगे हुए भोगों को और काम-क्रीड़ाओं को याद न किया जाए तथा पौष्टिक गरिष्ठ और रस-बहुल आहार-पान का त्याग किया जाए। परिग्रह-त्याग महावत की रक्षा के लिए पांचों इन्द्रियों के शब्दादि इष्ट विषयों में राग का और अनिष्ट विषयों में द्वेष का त्याग अावश्यक है। इन भावनाओं के करने पर ही उक्त महाव्रत स्थिर और दृढ़ रह सकते हैं, अन्यथा नहीं। अतः उक्त भावनाओं का निरन्तर चिन्तन करना चाहिए। तत्त्वार्थसूत्र में भी उक्त व्रतों की 25 भावनाएं कही गई हैं, किन्तु श्वे० और दि० सम्मत पाठों में तीसरे अचौर्य महाव्रत की भावनाओं में कुछ अन्तर है, प्रकरण-संगत होने एवं कुछ महत्त्वपूर्ण होने से उनका यहाँ निर्देश किया जाता है श्वे० तत्त्वार्थाधिगम भाष्य के अनुसार१. अनुवीचि-अवग्रह-याचन-हिंसादि दोषों से रहित निर्दोष अवग्रह का ग्रहण करना और उसी की याचना करना। 2. अभीक्ष्णावग्रहयाचन-निरन्तर उसी प्रकार से ग्रहण और याचन करना / 3. एतावदित्यवग्रहावधारण--- मेरे लिए इतना ही पर्याप्त है, ऐसा कह कर उतनी ही वस्तु को और भक्त-पान को ग्रहण करना / 4. समानधार्मिकों से अवग्रह-याचन–अपने ही समान समाचारी वालों से याचना करना और उन्हीं के पदार्थों को ग्रहण करना। 5. अनुज्ञापित पान-भोजन-अनुज्ञा या स्वीकृति मिलने पर भोजन-पान करना / दि० तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार१. शून्यागार-पावास-जिनका कोई स्वामी नहीं रहा है और जो सर्वसाधारण लोगों के ठहरने के लिए घोषित कर दिये गये हैं, ऐसे सूने घर, मठ आदि में निवास करना / 2. विमोचितावास-जिन घरों के स्वामियों को राजा आदि ने निकाल कर देश से बाहर कर दिया और उन्हें सर्वसाधारण के रहने या ठहरने के लिए घोषित कर दिया ऐसे घरों में निवास करना / 3. परोपरोधाकरण---जहां स्वयं निवास कर रहे हों, उस स्थान पर यदि कोई साधर्मी ठहरने को आवे तो उसे मना नहीं करना / 4. भैक्ष्यशुद्धि-भिक्षा-सम्बन्धी सर्व दोषों और अन्तरायों को टाल भिक्षा ग्रहण करना। 5. सधर्माविसंवाद-साधर्मी जनों से विसंवाद या कलह नहीं करना / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy