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________________ त्रयोविशतिस्थानक समवाय ] [67 असुरकुमार देवों की स्थिति बाईस पल्योपम कही गई है। सौधर्म-ईशान कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति बाईस पल्योपम कही गई है। १५४—अच्चुते कप्पे देवाणं [उक्कोसेणं] वासोसं सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता / हेट्ठिम-हेटिमगेवेज्जगाणं देवाणं जहणणं वावीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता / जे देवा महियं विसूहियं विमलं पभासं वणमालं अच्चुतडिसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा, तेसि गं देवाणं उक्कोसेणं वावीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता / ते णं देवा [वावीसं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा, उस्ससंति वा नीससंति वा।] तेसि णं देवाणं वावोसवाससहस्सेहिं आहार? समुप्पज्जइ / संतेगइया भविसिद्धिया जीवा जे वावोसं भवग्गहणेहि सिज्झिस्संति बुझिस्संति मच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति। अच्युत कल्प में देवों की [उत्कृष्ट] स्थिति बाईस सागरोपम कही गई है। अधस्तन-अधस्तन को जघन्य स्थिति बाईस सागरोपम कही गई है। वहां जो देव माहित. विसहित (विश्रत). विमल, प्रभास, वनमाल और अच्युतावतंसक नाम के विमानों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति बाईस सागरोपम कही गई है। वे देव बाईस अर्धमासों (ग्यारह मासों) के बाद प्रानप्राण या उच्छवास-नि:श्वास लेते हैं। उन देवों के वाईस हजार वर्षों के बाद आहार को इच्छा उत्पन्न होती है। कितनेक भवसिद्धिक जीव बाईस भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे कर्मों से मुक्त होंगे, परम निर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे। // द्वाविंशतिस्थानक समवाय समाप्त // त्रयोविंशतिस्थानक-समवाय १५५–तेवीसं सूयगडज्झयणा पण्णत्ता, तं जहा—समए 1, वेतालिए 2, उवसग्गपरिण्णा 3, थोपरिणा 4, नरयविभत्ती 5, महावीरथुई 6, कुसीलपरिभासिए 7, विरिए 8, धम्मे 9, समाही 10, मग्गे 11, समोसरणे 12, पाहत्तहिए 13, गंथे 14, जमईए 15, गाथा 16, पुण्डरीए 17, किरियाठाणा 18, आहारपरिण्णा 19, अपच्चक्खाणकिरिआ 20, अणगारसुयं 21, अद्दइज्ज 22, णालंदइज्ज 23 / सूत्रकृताङ्ग में तेईस अध्ययन कहे गये हैं। जैसे-१. समय, 2. वैतालिक, 3. उपसर्गपरिजा, 3. स्त्रोपरिज्ञा, 5. नरकविभक्ति, 6. महावीरस्तुति, 7. कुशोलपरिभाषित, 8. वीर्य, 9. धर्म, 10. समाधि, 11. मार्ग, 12. समवसरण, 13. याथातथ्य (प्राख्यातहित) 14. ग्रन्थ, 15. यमतीत, 16. गाथा, 17. पुण्डरीक, 18. क्रियास्थान, 19. पाहारपरिज्ञा, 20. अप्रत्याख्यानक्रिया, 21. अनगारश्रुत, 22. प्राीय, 23. नालन्दीय / १५६-जम्बुद्दीवे णं दीवे भारहे वासे इमोसे णं ओसप्पिणोए तेवीसाए जिणाणं सूरुग्गमणमुहतंसि केवलवरनाण-वंसणे समुप्पण्णे / जंबुद्दीवे णं दीवे इमीसे णं ओस प्पिणीए तेवीसं तित्थकरा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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