________________ [समवायाङ्गसूत्र कायिक क्रिया से ज्ञानावरणादि आठ कर्मों का कर्त्तन या छेदन किया जाय, उसे कृतिकर्म कहते हैं। अतः देव और गुरु की वन्दना के द्वारा भी पापकर्मों की निर्जरा होती है, अतः वंदना को कृतिकर्म कहा गया है। प्रकृत में यह गाथा इस बात की साक्षी में दी गई है कि कृतिकर्म में बारह आवर्त किये जाते हैं। पावर्त का क्या अर्थ है, इसके विषय में संस्कृतटीकाकार ने केवल इतना ही लिखा है'द्वादशावर्ताः सूत्राभिधानगर्भाः कायव्यापारविशेषाः यतिजनप्रसिद्धा:' अर्थात् साधुजन प्रसिद्ध, सूत्रकथित प्राशयवाले शरीर के व्यापार-विशेष को आवर्त कहते हैं / पर इससे यह स्पष्ट नहीं होता कि शरीर का वह व्यापार-विशेष क्या है, जिसे कि आवर्त कहते हैं। दि० परम्परा में दोनों हाथों को मुकुलित कर दाहिनी ओर से बायीं ओर घुमाने को प्रावर्त कहा गया है। यह आवर्त मन वचन काय की क्रिया के परावर्तन के प्रतीक माने जाते हैं, जो सामायिक दंडक और चतुर्विंशतिस्तव के आदि और अन्त में किये जाते हैं।' जो सब मिलकर बारह हो जाते हैं। ___ आवर्त और कृतिकर्म का विशेष रहस्य सम्प्रदाय-प्रचलित पद्धति से जानना चाहिए। उक्त गाथा स्वल्प पाठ-भेद के साथ दि० मूलाचार में भी पाई जाती है / ८०-विजया णं रायहाणी दुवालस जोयणसयसहस्साइं पायामविखंभेणं पण्णत्ता। रामे गं बलदेवे दुवालस वाससयाई सव्वाउयं पालिता देवत्तं गए / मंदरस्स णं पन्वयस्स चूलिया मूले दुवालस जोयणाई विक्खंभेणं पण्णत्ता। जंबूदीवस्स णं दीवस्स वेइया मूले दुवालस जोयणाई विक्खंभेणं पण्णत्ता। जम्बूद्वीप के पूर्व दिशावर्ती विजयद्वार के स्वामी विजय नामक देव की विजया राजधानी (यहाँ से असंख्यात योजन दूरी पर) बारह लाख योजन अायाम-विष्कम्भ वाली कही गई है। राम नाम के बलदेव बारह सौ (1200) वर्ष पूर्ण प्रायु का पालन कर देवत्व को प्राप्त हुए। मन्दर पर्वत की चूलिका मूल में बारह योजन विस्तार वाली है। जम्बूद्वीप नामक इस द्वीप की वेदिका मूल में बारह योजन विस्तार वाली है। ८१-सव्वजहणिया राई दुवालसमुहुत्तिया पण्णत्ता / एवं दिवसोवि नायव्यो। सर्व जघन्य रात्रि (सब से छोटी रात) बारह मुहूर्त की होती है। इसी प्रकार सबसे छोटा दिन भी बारह मुहूर्त का जानना चाहिए। ८२–सम्वसिद्धस्स णं महाविमाणस्स उवरिल्लायो थुभिन्नग्गाओ दुवालस जोयणाई उद्धं उप्पइया ईसिपब्भार नाम पुढवी पण्णत्ता / ईसिपल्भाराए णं पुढवीए दुवालस नामधेज्जा पण्णत्ता। तं 1. कथिता द्वादशावर्ता वपुर्वचनचेतसाम् / स्तव-सामायिकाद्यन्तपरावर्तन लक्षणा: / / 13 / / त्रिःसम्पुटीकृतौ हस्तौ भ्रामयित्वा पठेत्पुनः / साम्यं पठित्वा भ्रामयेत्तौ स्तवेऽप्येतदाचरेत् // 14 // (क्रियाकलाप) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org