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________________ द्वादशस्थानक समवाय] [35 जब वह मर्यादा का उल्लंघन कर अन्य विसम्भोगिक या पार्श्वस्थ प्रादि साधुको वस्त्रादि देने के लिए निमंत्रण देता है तो वह पूर्ववत् विसम्भोग के योग्य हो जाता है। यह निकाचन-विषयक सम्भोगविसम्भोग है। (7) साधू को गुरुजन या अधिक दीक्षापर्यायवाले साधु के आने पर अपने आसन से उठकर उसका यथोचित अभिवादन करना चाहिए। जब कोई साधु इस मर्यादा का उल्लंघन करता है, अथवा पार्श्वस्थ आदि साधु के लिए अभ्युत्थानादि करता है, तब वह पहले कहे अनुसार विसम्भोग के योग्य हो जाता है / यह अभ्युत्थान-विषयक सम्भोग-विसम्भोग है। (8) कृतिकर्म वन्दनादि यथाविधि करने पर साधु साम्भोगिक रहता है और उसकी मर्यादा का उल्लंघन करने पर वह विसम्भोग के योग्य हो जाता है। (9) वैयावृत्त्यकरण—जब तक साधु वृद्ध, बाल, रोगी आदि साधुओं की यथाविधि वैयावृत्त्य करता है तब तक वह साम्भोगिक है। उसकी मर्यादा का उल्लंघन करने पर वह विसम्भोग के योग्य हो जाता है। (10) प्रवचन-भवन आदि जिस स्थान पर अनेक साधु एक साथ मिलते और उठते-बैठते हैं, उस स्थान को समवसरण कहते हैं। वहां पर मर्यादापूर्वक साम्भोगिक साधुनों के साथ उठनासमवसरण-विषयक सम्भोग है। तथा वहाँ असम्भोगिक या पार्श्वस्थादि साधनों के साथ बैठ कर मर्यादा का उल्लंघन करता है तो वह पूर्ववत् विसम्भोग के योग्य हो जाता है। (11) अपने पासन से उठकर गुरुजनों से प्रश्न पूछना, उनके द्वारा पूछे जाने पर प्रासन ठकर उत्तर देना संनिषद्या-विषयक सम्भोग है। यदि कोई साधू गुरुजनों से कोई प्रश्न अपने आसन पर बैठे-बैठे ही पूछता है, या उनके द्वारा कुछ पूछे जाने पर आसन से न उठकर बैठे-बैठे ही उत्तर देता है, तो यह मर्यादा का उल्लंघन करने से पूर्ववत् विसंभोग के योग्य हो जाता है। (12) गुरु के साथ तत्त्व-चर्चा या धर्मकथा के समय वाद-कथा सम्बन्धी नियमों का पालन करना कथा-प्रबन्धन-सम्भोग है / जब कोई साधु कथा-प्रबन्ध के नियमों का उल्लंघन करता है, तब वह विसम्भोग के योग्य हो जाता है। यह कथा-प्रबन्ध-विषयक संभोग है। कहने का सारांश यह है कि साधु जब तक अपने संघ की मर्यादा का पालन करता है, तब तक साम्भोगिक रहता है और उसके उल्लंघन करने पर विसम्भोग के योग्य हो जाता है / ७९--दुवालसावत्ते कितिकम्मे पण्णत्ते, तं जहा दुग्रोणयं जहाजायं कितिकम्मं बारसावयं / चउसिरं तिगुतं च दुपवेसं एगनिक्खमणं // 1 // कृतिकर्म बारह आवर्त वाला कहा गया है / जैसे कृतिकर्म में दो अवनत (नमस्कार), यथाजात रूप का धारण, बारह आवर्त, चार शिरोनति, तीन गुप्ति, दो प्रवेश और एक निष्क्रमण होता है // 1 // विवेचन--कृतिकर्म की निरुक्ति है-'कृत्यते छिद्यते कर्म येन तत् कृतिकर्म' अर्थात् परिणामों की जिस विशुद्धिरूप मानसिक क्रिया से शब्दोच्चारण रूप वाचनिक क्रिया से और नमस्कार रूप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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