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________________ [समवायानसूत्र सम्भोग बारह प्रकार का कहा गया है / यथा--- 1. उपधि-विषयक सम्भोग, 2. श्रुत-विषयक सम्भोग, 3. भक्त-पान-विषयक सम्भोग, 4. अंजली-प्रग्रह सम्भोग, 5. दान-विषयक सम्भोग, 6. निकाचन-विषयक सम्भोग, 7. अभ्युत्थानविषयक सम्भोग, 8. कृतिकर्म-करण सम्भोग, 9. वैयावृत्त्य-करण सम्भोग. 10. समवसरण-सम्भोग, 11. संनिषद्या सम्भोग और 12. कथा-प्रबन्धन सम्भोग / / 1-2 // विवेचन-समान समाचारी वाले साधुओं के साथ खान-पान करने, वस्त्र-पात्रादि का आदानप्रदान करने और दीक्षा-पर्याय के अनुसार विनय, वैयावृत्त्य आदि करने को सम्भोग कहते हैं। वह उपधि आदि के भेद से बारह प्रकार का कहा गया है। साधु को अनुद्दिष्ट एवं निर्दोष वस्त्र-पात्रतथा भक्त-पानादि के ग्रहण करने का विधान है / यदि कोई साधु अशुद्ध या सदोष उपधि (वस्त्रपात्रादि) को एक, दो या तीन वार तक ग्रहण करता है, तब तक तो वह प्रायश्चित्त लेकर सम्भोगिक बना रहता है। चौथी वार अशुद्ध वस्त्र-पात्रादि के ग्रहण करने पर वह प्रायश्चित्त लेने पर भी विसम्भोग के योग्य हो जाता है। अर्थात् अन्य साधु उसके साथ खान-पान बन्द कर देते हैं और उसे अपनी मंडली से पृथक् कर देते हैं / ऐसे साधु को विसम्भोगिक कहा जाता है। (1) जब तक कोई साधु उपधि (वस्त्र-पात्रादि) विषयक मर्यादा का पालन करता है, तब तक वह साम्भोगिक है और उपर्युक्त मर्यादा का उल्लंघन करने पर वह पूर्वोक्त रीति से विसम्भोगिक हो जाता है / यह उपधि-विषयक सम्भोग-विसम्भोग है। (2) जब तक कोई साधु अन्य सम्भोगिक साधु को श्रुत-विषयक वाचनादि निर्दोष विधि से देता है, तब तक वह सम्भोगिक है और यदि वह उक्त मर्यादा का उल्लंघन कर पाश्वस्थ आदि साधुओं को तीन वार से अधिक श्रुत की वाचनादि देता है, तो वह पूर्ववत् विसम्भोगिक हो जाता है / यह श्रुत-विषयक सम्भोग-विसम्भोग है। (3) जब तक कोई साधु भक्त-पान-विषयक निर्दोष मर्यादा का पालन करता है, तब तक वह साम्भोगिक और पूर्ववत् मर्यादा का उल्लंघन करने पर विसम्भोग के योग्य हो जाता है / यह भक्तपान-विषयक सम्भोग-विसम्भोग है। (4) साधुओं को दीक्षा-पर्याय के अनुसार परस्पर में वन्दना करने और हाथों की अंजलि जोड़कर नमस्कारादि करने का विधान है। जब कोई साधु इसका उल्लंघन नहीं करता है, या पार्श्वस्थ आदि साधुओं की बन्दनादि नहीं करता है, तब तक वह साम्भोगिक है और उक्त मर्यादा का उल्लंघन करने पर वह विसम्भोगिक कर दिया जाता है / यह अंजलि-प्रग्रह-विषयक सम्भोगविसम्भोग है। (5) साधु अपने पास के वस्त्र, पात्रादि को अन्य साम्भोगिक साधु के लिए दे सकता है, या देता है, तब तक वह साम्भोगिक है। किन्तु जब वह अपने वस्त्र-पात्रादि उपकरण उक्त मर्यादा का उल्लघन कर अन्य विसम्भोगिक या पार्श्वस्थ आदि साधु को देता है तो वह पूर्वोक्त रोति से विसम्भोग के योग्य हो जाता है / यह दान-विषयक सम्भोग-विसम्भोग है। (6) निकाचन का अर्थ निमंत्रण देना है। जब कोई साधु यथाविधि अन्य साम्भोगिक साधु को शुद्ध वस्त्र, पात्र या भक्त-पानादि देने के लिए निमंत्रण देता है, तब तक वह साम्भोगिक है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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