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________________ द्वादशस्थानक समवाय] जहा-ईसि त्ति वा, ईसिपब्भारा ति वा, तणू इ वा, तणुयतरि ति वा, सिद्धि त्ति वा, सिद्धालए त्ति वा, मुत्ती त्ति वा, मुत्तालए त्ति वा, बंभे ति वा बंभडिसए ति वा, लोकपडिपूरणे ति वा लोगगचूलिपाई वा। ___ सर्वार्थसिद्ध महाविमान की उपरिम स्तूपिका (चूलिका) से बारह योजन ऊपर ईषत् प्राग्भार नामक पृथिवी कही गई है / ईषत् प्राम्भार पृथिवी के बारह नाम कहे गये हैं / जैसे—ईषत् पृथिवी, ईषत् प्रारभार पृथिवी, तनु पृथिवी, तनुतरी पृथिवी, सिद्धि पृथिवी, सिद्धालय, मुक्ति, मुक्तालय, ब्रह्म, ब्रह्मावतंसक, लोकप्रतिपूरणा और लोकाग्रचूलिका। ८३--इभीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं बारस पलिअोवमाई ठिई पण्णत्ता। पंचमीए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं बारस सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं बारस पलिग्रोवमाई ठिई पण्णत्ता / सोहम्मोसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं देवाणं बारस पलिप्रोवमाइं ठिई पण्णत्ता। इस रत्नप्रभा पृथिवी में कितनेक नारकों की स्थिति बारह पल्योपम कही गई है। पांचवीं धूमप्रभा पृथिवी में कितनेक नारकों की स्थिति बारह सागरोपम कही गई है। कितनेक असुरकुमार देवों की स्थिति बारह पल्योपम कही गई है। सौधर्म-ईशान कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति बारह पल्योपम कही गई है। ८४-लंतए कप्पे अत्थेगइयाणं देवाणं बारस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। जे देवा महिंद महिंदज्शयं कंबुकंबुग्गीयं पुखं सुपुखं महापुखं पुंडं सुपुडं महापुडं नारदं नरिंदकतं नरिंदुत्तरडिसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा, तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं बारस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता / ते णं देवा बारसण्हं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा, उस्ससंति वा नीससंति वा / तेसि णं देवाणं बारसहि वाससहस्सेहि आहारट्ठे समुप्पज्जइ / संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे बारसहिं भवग्गहणेहि सिज्झिस्संति बुझिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सम्बदुक्खाणमंतं करिस्संति / लान्तक कल्प में कितनेक देवों की स्थिति बारह सागरोपम कही गई है। वहां जो देव माहेन्द्र, माहेन्द्रध्वज, कम्बु, कम्बुग्रीव, पुख, सुपुख महापुख, पुंड, सुपुड, महाड नरेन्द्र, नरेन्द्रकान्त और नरेन्द्रोत्तरावतंसक नाम के विशिष्ट विमानों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं, उनकी उत्कृष्ट स्थिति बारह सागरोपम कही गई है / वे देव बारह अर्धमासों (छह मासों) के बाद प्रान-प्राण या उच्छ्वासनि:श्वास लेते हैं / देवों के बारह हजार वर्ष के बाद आहार की इच्छा उत्पन्न होती है। कितनेक भव्यसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो बारह भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परम निर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे। ॥द्वादशस्थानक समवाय समाप्त 12 // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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