________________ 38] [समवायानसूत्र त्रयोदशस्थानक-समवाय ८५-तेरस किरियाठाणा पण्णत्ता, तं जहा अत्थादंडे अणत्थादंडे हिसादण्डे अकम्हादंडे दिद्धिविपरिमासियादंडे मुसावायवत्तिए अदिन्नादाणवत्तिए अज्झस्थिए मानवत्तिए मित्तदोसवत्तिए मायावत्तिए लोभवत्तिए इरियावहिए नाम तेरसमे / तेरह क्रियास्थान कहे गये हैं। जैसे--अर्थदंड, अनर्थदंड, हिंसादंड, अकस्माद् दंड, दृष्टिविपर्यास दंड, मृषावाद प्रत्यय दंड, अदत्तादान प्रत्यय दंड, आध्यात्मिक दंड, मानप्रत्यय दंड, मित्रद्वेषप्रत्यय दंड, मायाप्रत्यय दंड, लोभप्रत्यय दंड और ईपिथिक दंड / विवेचन-कर्म-बन्ध की कारणभूत चेष्टा को क्रिया कहते हैं। उसके तेरह स्थान या भेद कहे गये हैं। अपने शरीर, कुटुम्ब आदि के प्रयोजन से जीव-हिंसा होती है, वह अर्थदंड कहलाता है / विना प्रयोजन जीव-हिंसा करना अनर्थदंड कहलाता है। संकल्पपूर्वक किसी प्राणी को मारना दंड है। उपयोग के विना अकस्मात् जीव-घात हो जाना अकस्माद् दंड है / दृष्टि या बुद्धि के विभ्रम से जीव-घात हो जाना दृष्टिविपर्यास दंड है, जैसे मित्र को शत्रु समझ कर मार देना। असत्य बोलने के निमित्त से होने वाला जीव-धात मृषाप्रत्यय दंड है / अदत्त वस्तु के आदान से--चोरी के निमित्त से होने वाले जीव-घात को अदत्तादानप्रत्यय दंड कहते हैं। अध्यात्म का अर्थ यहां मन है / बाहरी निमित्त के विना मन में हिंसा का भाव उत्पन्न होना या शोकादिजनित पीड़ा होना आध्यात्मिक दंड है / अभिमान के निमित्त से होने वाला जीव-घात मानप्रत्यय दंड है। मित्रजन-माता पिता आदि का-अल्प अपराध होने पर भी अधिक दंड देना मित्रद्वेषप्रत्यय दंड है। मायाचार करने से उत्पन्न होने वाला मायाप्रत्यय दंड कहलाता है। लोभ के निमित्त से होने वाला लोभप्रत्यय दण्ड कहलाता है / कषाय के अभाव में केवल योग के निमित्त होने वाला कर्मबन्ध ईर्यापथिक दंड कहलाता है। ८६-सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु तेरस विमाणपत्थडा पण्णत्ता। सोहम्मवडिसगे णं विमाणे अद्धतेरसजोयणसयसहस्साई आयामविक्खंभेणं पण्णत्ते / एवं ईसाणवडिसगे वि / जलयरपंचिदियतिरिक्खजोणिग्राणं अद्धतेरस जाइकल-कोडीजोणीयमहसयसहस्साई पण्णत्ता। सौधर्म-ईशान कल्पों में तेरह विमान-प्रस्तट (प्रस्तार, पटल या पाथड़े) कहे गये हैं / सौधर्मावतंसक विमान अर्ध-त्रयोदश अर्थात् साढ़े बारह लाख योजन अायाम-विष्कम्भ वाला है। इसी प्रकार ईशानावतंसक विमान भी जानना चाहिए। जलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक जीवों की जाति कूलकोटियां साढ़े बारह लाख कही गई हैं / ८७–पाणाउस्स णं पुवस्स तेरस वत्थू पण्णत्ता। प्राणायु नामक बारहवें पूर्व के तेरह वस्तु नामक अधिकार कहे गये हैं / ८८-गम्भवक्कंतिअपंचिदियतिरिक्खजोणियाणं तेरसविहे पोगे पण्णत्ते, तं जहासच्चमणपनोगे मोसमणपनोगे सच्चामोसमणपयोगे असच्चामोसमणपयोगे सच्चवइपोगे मोसवह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org