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________________ त्रयोदशस्थानक समवाय] [39 कप्पेस पओगे सच्चामोसवइपओगे असच्चामोसवइपओगे ओरालियसरीरकायपओगे ओरालियमोससरीरकायपोगे वेउब्वियसरीरकायपओगे वेउग्वियमीससरीकायपोगे कम्मइयसरीरकायपओगे। गर्भज पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीवों में तेरह प्रकार के योग या प्रयोग होते हैं। जैसे-सत्य मनःप्रयोग, मृषामनःप्रयोग, सत्यमृषामनःप्रयोग, असत्यामृषामनःप्रयोग, सत्यवचनप्रयोग भूषावचनप्रयोग, सत्यमृषावचनप्रयोग, असत्यामृषावचनप्रयोग, औदारिकशरीरकाय प्रयोग, औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोग, वैक्रियशरीरकायप्रयोग, वैक्रियमिश्रशरीर कायप्रयोग, और कार्मणशरीरकायप्रयोग। 89 -सूरमंडलं जोयणेणं तेरसेहि एगसटिभागेहि जोयणस्स ऊणं पण्णत्ते / सूर्यमंडल एक योजन के इकसठ भागों में से तेरह भाग (13) से न्यून अर्थात् (16) योजन के विस्तार वाला कहा गया है। ९०-इमोसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइमाणं नेरइयाणं तेरसपलिओवमाइं ठिई पण्णता / पंचमीए पुढवीए अत्थेगइआणं नेरइयाणं तेरस सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता / सोहम्मीसाणेसु थेगइमाणं देवाणं तेरस पलिओवमाडं ठिई पण्णत्ता। इस रत्नप्रभा पृथिवी में कितनेक नारकों को स्थिति तेरह पल्योपम कही गई है। पांचवीं धूमप्रभा पृथिवी में कितनेक नारकों की स्थिति तेरह सागरोपम कही गई है। सौधर्म-ईशान कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति तेरह पल्योपम कही गई है। ९१-लंतए कप्पे अत्थेगइआणं देवाणं तेरस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता / जे देवा वज्जं सुवज्जं वज्जावत्तं [वज्जप्पभं] वज्जतं वज्जवणं वज्जलेसं वज्जरूवं बज्जसिंगं वज्जसिलैं वज्जकूडं वज्जत्तरडिसगं वइरं वइरावत्तं वइरप्पभं वइरकंतं वइरवण्णं वइरलेसं वइररूवं वइरसिंगं वइरसिटठं वइरकूडं वइरुत्तरडिसगं लोग लोगावत्तं लोगप्पभं लोगकंतं लोगवणं लोगलेसं लोगरूवं लोगसिंग लोगसिट्ठे लोगकडं लोगुत्तरडिसगं विमाणं देवत्ताए उबवण्णा तेसि गं देवाणं उक्कोसेणं तेरस सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता / ते णं देवा तेरसहि अद्धमासेहि आणमंति वा पाणमंति वा, उस्ससति वा नीससंति वा / तेसि णं देवाणं तेरसहि वाससहस्सेहिं आहारट्ठे समुष्पज्जइ। संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे तेरसहि भवग्गणेहि सिज्झिस्संति बुझिस्संति मुच्चिस्संति परिनिब्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति / लान्तक कल्प में कितनेक देवों की स्थिति तेरह सागरोपम कही गई है। वहां जो देव वज्र, सुवज्र, वज्रावर्त [वज्रप्रभ] वज्रकान्त, बज्रवर्ण, वज्रलेश्य, वज्ररूप, वज्रशृग, वज्रसृष्ट, वज्रकूट, वज्रोत्तरावतंसक, वइर, वइरावर्त, वइरप्रभ, वइरकान्त, वइरवर्ण, वइरलेश्य वइग्रूप, वइरशृग, वइरसृष्ट, वइरकूट, वइरोत्तरावतंसक ; लोक, लोकावर्त, लोकप्रभ, लोककान्त. लोकवर्ण, लोकलेश्य, लोकरूप, लोकशृग, लोकसृष्ट, लोककूट और लोकोत्तरावतंसक नाम के विमानों में देव रूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों को उत्कृष्ट स्थिति तेरह सागरोपम कही गई है। वे तेरह अर्धमामों (साढ़े छह मासों) के बाद प्रान-प्राण-उच्छ्वास-नि:श्वास लेते हैं। उन देवों के तेरह हजार वर्ष के बाद पाहार की इच्छा उत्पन्न होती है। कितनेक भव्यसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो तेरह भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परम निर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे। / / त्रयोदशस्थानक समवाय समाप्त / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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