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________________ अष्टस्यानक समवाय] [21 केवलि समुद्घात पाठ समयवाला कहा गया है जैसे--- के बली भगवान् प्रथम समय में दंड समुद्घात करते हैं, दूसरे समय में कपाट समुद्घात करते हैं, तीसरे समय में मन्थान समुद्घात करते हैं, चौथे समय में मन्थान के अन्तरालों को पूरते हैं, अर्थात् लोकपुरण समुद्घात करते हैं / पांचवें समय में मन्थान के अन्तराल से प्रात्मप्रदेशों का प्रतिसंहार (संकोच) करते हैं, छठे समय में मन्थानसमुद्घात का प्रतिसंहार करते हैं, सातव समय में कपाट समुद्घात का प्रतिसंहार करते हैं और आठवें समय में दंडसमुद्घात का प्रतिसंहार करते हैं। तत्पश्चात् उनके आत्म-प्रदेश शरोरप्रमाण हो जाते हैं। ४७-पासस्स णं अरहनो पुरिसादाणिअस्स अट्ट गणा अट्ठ गणहरा होत्था, तं जहा--- सुभे य सुभघोसे य वसिठे बंभयारि य। सोमे सिरिधरे चेव वीरभद्दे जसे इ य // 1 // पुरुषादानीय अर्थात पुरुषों के द्वारा जिनका नाम अाज भी श्रद्धा और पादार-पूर्वक स्मरण किया जाता है, ऐसे पार्श्वनाथ तीर्थकर देव के पाठ गण और पाठ गणधर थे। जैसे-शुभ, शुभघोष, वशिष्ठ, ब्रह्मचारी, सोम, श्रीधर, वीरभद्र और यश // 1 // 48 -अट्ठ नक्खत्ता चंदेणं सद्धि पमई जोगं जोएंति, तं जहा-कत्तिया 1, रोहणी 2, पुणव्वसू 3, महा 4, चित्ता 5, विसाहा 6, अणुराहा 7, जेट्ठा 8 / आठ नक्षत्र चन्द्रमा के साथ प्रमर्द योग करते हैं। जैसे—कृत्तिका 1, रोहिणी 2, पुनर्वसु 3, मघा 4, चित्रा 5, विशाखा 6, अनुराधा, 7, और ज्येष्ठा 8 / विवेचन-जिस समय चन्द्रमा उक्त पाठ नक्षत्रों के मध्य से गमन करता है, उस समय उसके उत्तर और दक्षिण पार्श्व से उनका चन्द्रमा के साथ जो संयोग होता है, वह प्रमर्दयोग कहलाता है। 49 --इमोसे णं रयणप्पहाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं अट्ट पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता / चउत्थीए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं अट्ठ सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं अट्ठ पलिग्रोवमाई ठिई पण्णत्ता। सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं देवाणं अट्ठ पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता। इस रत्नप्रभा पृथिवी में कितनेक नारकों की स्थिति पाठ पल्योपम कही गई है। चौथी पंकप्रभा पृथिवी में कितनेक नारकों की स्थिति पाठ सागरोपम कही गई है। कितनेक असुरकुमार देवों की स्थिति आठ पल्योपम कही है। सौधर्म-ईशान कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति पाठ पल्योपम कही गई है। 50- बंभलोए कप्पे अत्थेगइयाणं देवाणं अट्ठ सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता / जे देवा अच्चि 1, अच्चिमालि 2, वइरोयणं 3, पभंकरं 4, चंदाभं 5, सूराभं 6, सुपइट्राभं 7, अग्गिच्चाभं 8, रिट्ठाभ 9, अरुणाभं 10, अणुत्तरडिसगं 11, विमाणं देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं अट्ठ सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता / ते णं देवा अट्टण्हं अद्धमासाणं प्राणमंति वा पाणमंति वा, ऊससंति वा नोससंति वा / तेसि णं देवाणं अहि वाससहस्सेहि आहारट्टे समुप्पज्जइ / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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