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________________ 20 ] [ समवायाङ्गसूत्र है / वे देव सात अर्धमासों (साढ़े तीन मासों) के बाद प्राण-प्राण-उच्छ्वास-निःश्वास लेते हैं / उन देवों को सात हजार वर्षों के बाद ग्राहार की इच्छा उत्पन्न होती है। . कितनेक भव्यसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो सात भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परम निर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे। / / सप्तस्थानक समवाय समाप्त // अष्टस्थानक-समवाय ४४–अढ मयट्ठाणा पण्णता, तं जहा-जातिमए कुलमए बलमए रूवमए तवमए सुयमए लाभमए इस्सरियमए / अट्ठ पवयणमायाओ पण्णत्तानो, तं जहा ईरियासमिई भासासमिई एसणासमिई प्रायाणभंडमत्तणिक्खेवणासमिई उच्चार-पासवण-खेल-जल्ल-सिंघाणपारिट्ठावणियासमिई मणगुत्ती वयगुत्ती कायगुत्ती / पाठ मदस्थान कहे गये हैं। जैसे-जातिमद (माता के पक्ष की श्रेष्ठता का अहंकार), कुलमद (पिता के वंश की श्रेष्ठता का अहंकार), बलमद, रूपमद, तपोमद, श्रुतमद (विद्या का अहंकार) लाभमद और ऐश्वर्यमद (प्रभुता का अभिमान)। पाठ प्रवचन-माताएं कही गई है। जैसेईर्यासमिति, भाषासमिति, एषणासमिति, आदान-भांड-मात्र निक्षेपणासमिति, उच्चार-प्रस्रवण-खेल सिंघाण-परिष्ठापनासमिति, मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और काय गुप्ति / विवेचन-मनुष्य जिन स्थानों या कारणों से अहंकार या अभिमान करता है उनको मदस्थान कहा जाता है / वे पाठ हैं। विभिन्न कलाओं की प्रवीणता या कुशलता का मद भी होता है, उसे श्रुतमद के अन्तर्गत जानना चाहिए। प्रवचन का अर्थ द्वादशाङ्ग गणिपिटक और उसका अाधारभूत संघ है / जैसे माता बालक की रक्षा करती है, उसी प्रकार पांच समितियां और तीन गुप्तियां द्वादशाङ्ग प्रवचन की और संघ की, संघ के संयमरूप धर्म की रक्षा करती हैं, इसलिए उनको प्रवचनमाता कहा जाता है। ४५–वाणमंतराणं देवाणं चेइयरुक्खा अट्ट जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं पण्णत्ता। जंबू णं सुदंसणा अटु जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं पण्णत्ता। कूडसामली णं गरुलावासे अट्ठ जोयणाई उद उच्चत्तेणं पण्णते / जंबुद्दीवस्स णं जगई अट्ठ जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं पण्णत्ता। वानव्यन्तर देवों के चैत्यवृक्ष पाठ योजन ऊंचे कहे गये हैं। (उत्तरकुरु में स्थित पाथिव) जंवूनामक सुदर्शन वृक्ष पाठ योजन ऊंचा कहा गया है। (देवकुरु में स्थित) गरुड का प्रावासभूत पार्थिव कूटशाल्मली वृक्ष पाठ योजन ऊंचा कहा गया है। जम्बूद्वीप की जगती (प्राकार के समान पाली) पाठ योजन ऊंची कही गई है। ४६-अट्ठसामइए केवलिसमुग्घाए पण्णत्ते, तं जहा.- पढमे समए दंडं करेइ, बोए समए कवाडं करेइ, तइयसमए मंथं करेइ, चउत्थे समए मंथंतराई पूरेइ, पंचमे समए मंयंतराई पडिसाहरइ, छ? समए मंथं पडिसाहरइ / सत्तमे समए कवाडं पडिसाहरइ, अट्ठमे समए दंडं पडिसाहरइ / ततो पच्छा सरीरस्थे भवइ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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